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आनन्द प्रवचन : भाग ६
अमेरिका के प्रसिद्ध धनवान राथ्स चाइल' ने किसी युवक को सलाह देते हुए कहा था-"तुम्हें जो भी व्यवसाय पसंद हो, उसी में लग जाओ, इस प्रकार तुम्हें अधिकाधिक लक्ष्मी, सफलता और कीर्ति मिल सकेगी। पर यदि तुम एक साथ ही होटल वाले, अर्थशास्त्री, व्यापारी, कारीगर आदि सब तरह के काम करने की कोशिश करोगे तो अखबारों में तुम्हारा नाम दिवालिया होने वालों के स्तम्भ में निकलने में देर न लगेगी।"
इस प्रकार जो व्यक्ति संभिन्नचित्त होकर अपने समय और श्रम को इधर-उधर के अनेक कामों में व्यर्थ ही खोता रहता है, उम सफलता और श्री की आशा कदापि नहीं रखनी चाहिए।
लन्दन में एक व्यक्ति ने अपने निवास स्थान पर एक साइनबोर्ड लगा रखा था, उस पर लिखा था-'यहाँ सामान बदला जाता है, खबर ले जाई जाती है, फर्श धोये जाते हैं और किसी भी विषय पर कविता लिको जाती है।" कहने की आवश्यकता नहीं कि इनमें से किसी भी काम को वह मनुष्याठीक तरह से नहीं जानता था, न कर सकता था। फलतः इन असम्बद्ध और बेमेल बतमों में उसे जीवनभर जरा भी सफलता नहीं मिली और न ही कुछ धन मिला। क्योंकि लोग ऐसे व्यक्ति को सनकी, विक्षिप्त-चित्त और झक्की समझते थे। ऐसे अमड़ी को काम देना कोई भी समझदार पसंद नहीं करता था। भला, ऐसे हरफनमौला को कोई भी समझदार आदमी किसी जिम्मेदारी का काम कैसे सौंप सकता है, जो एक-एक घंटे में अपने विचार बदलता
हो।
पागल आदमी का भी चित्त विक्षिप्त रहा है, वह कभी कुछ बोलता है, कभी कुछ। उसका पूर्वापर कथन असम्बद्ध-सा माला देता है। ऐसे उखड़े हुए चित्त वाला व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता। धार्मिक क्षेत्र में भी वह अपने लक्ष्य की
ओर गति नही कर सकता, वह आज एक आधना को स्वीकार करेगा, कल दूसरी साधना पकड़ लेगा। उससे न जप होगा और F तप, न वह किसी धर्म क्रिया को ठीक से कर सकेगा, न ही किसी विधि को पूर्ण कर सकेगा। आर्थिक क्षेत्र में तो वह सर्वथा असफल रहेगा। व्यावहारिक क्षेत्र में भी वह किसी भी कार्य को पूरी जिम्मेदारी के साथ, लगन के साथ नही कर सकेगा।
युद्ध में लड़ने का काम सैनिक करते हैं, किन्तु विजय का श्रेय कमाण्डर को मिलता है। क्या कभी आपने सोचा है, ऐसा क्यों होता है ? समझदार लोग जानते हैं कि युद्ध की सारी योजना एवं व्यूहरचना की पोजना सेनापति ही बनाता है। वही यह निश्चित करता है कि किस टुकड़ी को कहाँ लगाया जाये ? कहाँ गोला-बारूद या रसद भेजा जाए ? कहाँ की संचार व्यवस्था कैसी हो ? सेनापति स्वयं सहसा युद्ध में नहीं कूदता, परन्तु युद्ध का सारा नक्सा उसके मस्तिष्क में चित्रपट की तरह घूमता रहता है। उसका चित्त युद्ध के दौरान कदापि इधर-उधर के व्यर्थ के कामों में नहीं जाता। अगर वह संभिन्नचित्त होकर अपना ध्यान बा-बार अन्यान्य अनावश्यक एवं असम्बद्ध