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________________ संभिन्नचित्त होता श्री से वंचित १ १२५ कह सुनाई। महात्मा ने मुस्करा कर कहा--"बेटा ! दुनिया बड़ी चिकनी है, जहाँ जाओगे, वहाँ कोई न कोई आकर्षण देखकर तुम फिसल जाओगे। इसलिए इस प्रकार के भग्नचित्त को लेकर मत घूमो, दत्तचित्त होकर एक कार्य का निश्चय करके उसमें लग जाओ। तुम सब कुछ पा सकोगे। सफलतारूपी लक्ष्मी तुम्हारे चरणों में लौटेगी। बार-बार रुचि बदलने और नई नई रंगीन कल्पनाओं में विचरण करने से तुम्हें उन्नति एवं समृद्धि नहीं प्राप्त होगी।" महात्मा का मार्ग दर्शन पाकर युवक एक उद्देश्य निश्चित करके एक ही कार्य में संलग्न होकर अभ्यास करने लगा। यह है मनचित्त का उदाहरण, जो बार-बार कल्पनाओं या रुचियों के बदलने का सूचक है। एक पाश्चात्य लेखक हेरी ए-ओजरस्ट्रीट (Harry A.Overstreet) इस सम्बन्ध में यथार्थ कहता है "'The immature mind hops from one thing to another; the mature mind seeks to follow through." "अपरिपक्व चित्त एक चीज से दूसो चीज पर फुदकता-उछलता रहता है, जबकि परिपक्व चित्त एक ही उद्देश्य का अनुसरण ढूंढ़ता है।" प्रतिदिन कोई न कोई मन्तव्य बनाते पहने और दूसरे दिन उसे बदलते रहने से किसी भी काम में सफलता और विजयश्री नहीं मिलती, न कोई समस्या हल होती है। ऐसा करने से वह संभिन्नचित्त व्यक्ति हर प्रगल में विचलित और असफल होता है। कहावत है आधी छोड़ सारी को धावे, आधी रहे न सारी पावे।। तात्पर्य यह है कि अनेक कल्पनाएँ करने की अपेक्षा किसी एक विचार या कार्य में दृढ़तापूर्वक चित्त को स्थिर करना अधिक लाभदायक होता है। विजयश्री या सफलता के दर्शन भी उसी में होते हैं। चाहे उसमें प्रारम्भ में थोड़ा ही लाभ हो, पर दृढ़ता के साथ उस पर टिके रहने से अन्त में सफलता मिलती ही है। इसके विपरीत जो लोग किसी व्यक्ति की किसी कार्यमें बहुत बड़ी सफलता देखकर या किसी महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर उस कार्य में ना सोचे समझे कूद पड़ते हैं, किन्तु चित्त की भग्नता के कारण वे कुछ ही दिनों में असफल हो जाते हैं, तब उनका विश्वास टूट जाता है, आशाओं के किले ढह जाते हैं, रुदय की सारी उमंगे भग्न हो जाती हैं। ऐसे लोग भी भग्नचित्त होते हैं। वे अपनी मनोहत्ति पल-पल पर बदलते रहते हैं और जिस कार्य में विजयश्री पाने के लिए उत्सुक होते हैं, उसमें जब पूरी तरह से सारी शक्ति लगाकर सक्रिय नहीं होते और न ही उपयुत्त साधन जुटाते हैं, तब उन्हें विजयश्री कैसे मिल सकती है ? जिसके चित्त की स्थिति डांवाडोल रहती है, वह कभी एक कार्य, फिर दूसरा और फिर तीसरा, इस तरह से इधर-उधर चक्कर काटता रहता है और जिस कार्य को करने को चले थे, वह अधूरा ही रह जाता है।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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