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________________ संमिन्नोवत्त होता श्री से वंचित १ ११३ स्वयं के भाग्य को कोसता हुआ दरिद्रता की अपा में झुलसता रहता है, वह वास्तव में दरिद्र है। ऐसी दरिद्रता का निवारण किया जा सकता है, पर जो स्वयं अपने-आप को दरिद्रता की मूर्ति ही मान बैठता है, और उसके निवारण के लिए कुछ भी प्रयत्न भी नहीं करता, उसे तो कोई भी शक्ति ऊंचा नहीं उठा सकती। मन के लूले-लंगड़े और बुद्धि से दरिद्र व्यक्ति को कोई भी धन सम्पन्न नहीं बना सकता। एक सज्जन ने बहुत परिश्रम करके बीए० परीक्षा उत्तीर्ण करली। साथ ही वकालत भी पास कर ली। परन्तु इतना सब कुछ होते हुए भी वे दरिद्र ही रहे, अपना निर्वाह भी न कर पाये। क्योंकि न तो उनसे वकालत ही हुई, न उन्होंने छोटी-मोटी नौकरी ही ढूंढ़ी। उनके चित्त में यह बात बैठ गयी थी कि मैं जन्म से दरिद्र हूँ। मेरा जीवन दरिद्रता में ही बीतेगा। व्यर्थ भटकने धौर इधर-उधर हाथ-पैर मारने से क्या लाभ ? इस प्रकार आत्मविश्वास की कमी के कारण वे निराश हो गए। एक दिन वे एक ज्योतिषी के पास पहुँचे और उससे अपनी कष्ट कथा कहने लगे--."महाराज ! मैंने बहुत से काम किये, पर मुझसे कोई भी काम पूरा न हो सका। न धन मिला, और न यश। सर्वत्र अपमानित होकर मैं आज दरिद्र हनकर जी रहा हूँ। देखिये तो मेरी यह जन्मकुण्डली, इसमें कहीं मेरी दरिद्रता दूर होने की बात भी लिखी है या नहीं ?" ___ ज्योतिषी बहुत ही चालाक और मन के पारखी थे। उन्होंने उसकी जन्मकुण्डली देखकर कुछ गणना की और अन्त में मानसिक दरिद्रता से परास्त उस व्यक्ति से कहा-"हाँ भाई ! ऐसा ही कुछ जान पड़ता है।" वास्तव में जो मन में दरिद्रता को अपने पर ओढ़ चुकता है, उसे ज्योतिषी क्या, कोई भी देवी देव या भगवान भी दरिद्रता से पचा नहीं सकते। जब मनुष्य में अपनी योग्यता और शक्ति पर विश्वास नहीं रह जाता, तब धीरे-धीरे उसमें उन गुणों का ही हास होने लगता है, जिनके कारण वह सफल मनोरथ, श्रीसम्पन्न या विजयश्री से युक्त हो सकता है। ऐसी अवस्था में उसका जीवन ही दूभर हो जाता है। तब न तो उसमें किसी प्रकार की सदाकांक्षा रह जाती है, न सत्कार्य करने की शक्ति रह जाती है, न कार्य करने का ढंग रहता है और न उसे सफक्त होने में कोई सहायता मिलने की आशा रहती है। परिणाम यह होता है कि बह एक ईसे ढाल्लुए स्थान पर पहुंच जाता है, जहाँ से वह बराबर नीचे ही गिरता जाता है, ऊपर नहीं उठ पाता। जैसा कि पाश्चात्य विदुषी औइडा (Ouida) ने कहा है "Poverty is very terrible and sometimes kills the very soul within us." __ "दरिद्रता बड़ी खतरनाक बस्तु है, और कभी-कभी वह हमारी अन्तरात्मा को मार देती है।" दरिद्रता अपने आप में उतनी भयंकर और विनाशक नहीं है, किन्तु जब मनुष्य दरिद्रता को अपने में ओत-प्रोत कर लेता है, अपनी दरिद्रता को शास्वत समझ बैठता
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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