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________________ १०३ क्रुद्ध कुशील पाता है अकीर्ति मेरे से आकर खुद ही टकराया और मुझे अन्धा बता रहा है। सीधा चला जा, वरना इन मुट्टीभर हड्डियों का पता नहीं लगेगा। " यह सुनते ही तपस्वी क्रोध से जल उठी। वे कहने लगे है और दोषी मुझे बतलाता है। तपस्वी रामधुओं से अड़ा तो जाएगा।" "मूर्ख ! गलती अपनी यहीं का यहीं ढेर हो "क्या कहा ? तेरे जैसे सैंकड़ों तपस्त्री देखे हैं, ढेर करने वाले। अभी देख, मैं तो तुझे यहीं ढेर कर देता हूँ।” यों कहकर धोबी ने तपस्वी साधु की गर्दन पकड़कर जमीन पर पटका और कंकरीली जमीन पर खूब जोर से घसीटा। फिर बोला -- “अब तेरी अक्ल ठिकाने आई या नहीं ? नहीं तो, यहीं तेरी कपालक्रिया कर दूंगा । " तपस्वी साधु को होश आया। सोचा- अरे ! मैं साधु होकर कहाँ उलझ गया इससे झगड़ा करने। मेरी सारी प्रतिष्ठा इसान मिट्टी में मिला दी। बड़ी गलती हो गई। मेरी अर्जित की हुई साधुत्व की कीर्ति पर पानी फिर गया। फिर उसने धोबी से कहा—“अच्छा भैया । छोड़ दो मुझे। मैं हारा और तू जीता। क्षमा कर मुझे।" धोबी ने कहा- "नहीं नहीं, अभी जो तेरे में कोई चमत्कार हो तो बता दे । " साधु ने क्षमा माँगी। धोबी अपने रास्ते पर चल पड़ा। साधु दुर्बल शरीर से लड़खड़ाते हुए धीरे-धीरे पश्चात्ताप करते हुए चलने लगे । इतने में सेवा में रहने वाले सेवक देव ने तपस्वी साधु के चरण छुए और सुख शान्ति की पृच्छा की। साधु ने पूछा - "देवानुप्रिय ! कहाँ रहे अब तक ? मैं तो आज बड़े संघर्ष में फंस गया।' देव बोला - " था तो मैं आपकी शिवा में ही। लेकिन धोबी और चाण्डाल की लड़ाई का नाटक देख रहा था।" मुनि ने कहा- 'चाण्डाल यहाँ को नहीं था, मैं और धोबी थे।" देव ने कहा- "मुनिवर ! आपकी ओर तो कोई आँख भी नहीं उठा सकता, लेकिन आप अपने आपे में नहीं थे, उस समय आप में क्रोधरूपी चाण्डाल घुसा हुआ था, इसलिए मैं चाण्डाल की सेवा में नहीं आया। तटस्थ होकर दूर से तमाशा देखता रहा । " तपस्वी बोले- “सचमुच तुमने ठीक कहा। मुझे उस समय क्रोध आ गया था। मैं अपने आपे में नहीं था । क्रोधरूपी चाण्डाल ने घुसकर मेरी सारी कीर्ति चौपट कर दी। अब मैं अपने आपे में आया हूँ।" बन्धुओं! क्रोध के साथ अभिमान, द्वेष, रोष आदि जब साधक में प्रविष्ट हो जाते हैं तो कीर्ति को नष्ट करते देर नहीं लगाते । इसी प्रकार कीर्ति का दूसरा शत्रु है- कुशील कुशील का अर्थ है- सदाचरणहीनता, चरित्रभ्रष्टता ! थेरगाथा (६२४) में स्पष्ट कहा है- 'अवणं च अकिजिं च दुस्सीलो लभते नरः ' --दुशील पुरुष अपयश और अपकीर्ति पाता है।
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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