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________________ १०२ आनन्द प्रवचन : भाग ६ यशकीर्ति की सुरक्षा के लिए कवि का यह उद्बोधन कितना मार्मिक है। इस पर से यह तो सिद्ध हो गया कि मनुष्य जीवना पाने का उद्देश्य केवल मौज-शीक करना या सत्ता, धन या बुद्धि-वैभव पाना ही नहीं है, अपितु ऐसे सत्कार्य करना है, इस प्रकार का सदाचरण करना है, जिससे उसकी कीर्ति कलंकित और नष्ट न हो। जैनशास्त्र दशवैकालिक सूत्र (६/२) में भी बताया है एवं धम्मस्स विणओ मूर्त, परमो से मोक्खो। जेण कित्तिं सुयं सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छइ। इसी प्रकार धर्म का मूल विनय है, जो परम मोक्षरूप है, इससे साधक कीर्ति, श्रुत (शास्त्रज्ञान) और शीघ्र निःश्रेयप्त को प्राप्त करता है। कीर्ति की सुरक्षा के लिए अथ प्रश्न होता है कि कीर्ति-विशुद्ध कीर्ति को सुरक्षित रखने तथा उसे नष्ट होने से बचाने के लिए मनुष्य में किन-किन मुख्य गुणों का होना आवश्यक है ? गौतम महर्षि ने अकीर्ति प्राप्त होने के दो मुख्य कारण बताये हैं—क्रोध और कुशीलता। इन्हीं दो अवगुणों से नष्ट होती हु कीर्ति को बचाना चाहिए। जब मनुष्य में क्रोध का उभार आता है, उस समय उसरि विवेकबुद्धि नष्ट हो जाती है, और यह ऐसा कुकृत्य कर बैठता है, जिससे उसकी कीगर्ने सदा के लिए नष्ट हो जाती है। उसने जो कुछ भी परोपकार, दान और सेवा के काम किये थे, उन सब पर क्रोध पानी फिरा देता है। दानादि कार्यों से प्राप्त हो सकने कनी कीर्ति को वह क्रोध चौपट कर देता चण्डकौशिक सर्प पूर्वजन्म में एक साजु था, किन्तु क्रोधावेश में आकर अपने शिष्य पर प्रहार करने जा रहा था कि अचानक एक खम्भे से सिर टकराया। वह वहीं मूर्छित होकर गिर पड़ा और सदा के लिए आंखें मूंद लीं। क्रोधावेश में साधु जीवन में उपार्जित सारी सत्कृति जो कीर्ति का स्त्रोत थी नष्ट कर दी। एक बड़े ही तपस्वी थे। तपश्चयां में उनका जीवन आनन्दित रहता था। तपस्या के प्रभाव से दिव्य शक्तिधारी देव उनकी सेवा करने लगे। तपस्वी साधु को भी तपस्या के प्रभाव का मन में गर्व था। एक दिन तपस्वी साधु नगर के जन मंकुल मार्ग से जा रहे थे। सामने से एक धोबी अपनी पीठ पर कपड़ों का गट्ठर लादे। तेजी से चला जा रहा था। उसके द्वारा तपस्वी साधु को ऐसा धक्का लगा कि वे नीचे गिर पड़े। तपस्या से शरीर कृश होने से वह जरा-सी भी टक्कर न झेल सका। अपनी दशा देखकर तपस्वी क्रोध से आग बबूला हो गए और धोबी से कहने । लगे—'कैसा मदोन्मत्त एवं अन्धा होकर चलता है कि राह चलते सन्तों को भी नहीं दिखता। कुछ तो चलने में होश रखना चाहिए।" इतना सुनते ही धोबी क्रोधाविष्ट हो गया। कहने लगा---'मैं अन्धा हूँ या तू ?
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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