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क्रुद्ध कुशील पाता है अकीर्ति १०१ मुझसे अपने पुरखों की झोंपड़ी क्यों छीनना चाहता है ? कुछ दिनों में मैं मर जाऊँगी, तब इसे उजाड़कर बाग लगा लेना। मेरे रहत मेरे पुरखों की इस निशानी को मिटाने की मत सोच ।"
बादशाह नौशेरवां ने बुढ़िया की भावना समझी और अपनी कीर्ति नष्ट न होने देने के लिए, न्याय के नाते अपना बाग बिगा लिया, लेकिन बुढ़िया की झोंपड़ी सही सलामत खड़ी रहने दी। बुढ़िया अब इस दुनिया में नहीं रही, लेकिन बादशाह के न्याय और दया की प्रतीक उसकी झोपड़ी अब भी बरकरार है। राजदूत ने जब यह सुना तो आश्चर्य चकित होकर बोला- "न्याय और दया की साक्षी इस गंदी झोपड़ी ने बादशाह नौशेरवाँ की कीर्ति और बड़प्पन को इस महल और बाग से ज्यादा बढ़ा दिया है।"
सचमुच, बादशाह की इस न्यायप्रियता के कारण उसकी कीर्ति में चार चांद लग गए। मैं आपसे पूछता हूँ कि अगर नौशेरबौं बुढ़िया से सत्ता के बल पर जबरदस्ती उसकी झोपड़ी ले लेता और अपना बाग सुकर बनवा लेता तो क्या उसकी यह कीर्ति जो आज तक न्यायी नौशेरवाँ के नाम से ज्मजीवन में फैली हुई है, सुरक्षित रहती ? कदापि नहीं रहती। वह नष्ट हो जाती और उसके नाम पर अपकीर्ति (बदनामी) का काला कलंक लग जाता।
स्वर्ग का सबसे सुन्दर मार्ग शुक्ला ने कीर्ति का मार्ग बताया है। उन्होंने शुक्रनीति में कहा है
भूमौ यावद्यस्व कीर्तिहमवत्स्वर्गे स तिष्ठति।
अकीतिरेव नरको नाउमोऽस्ति नस्को दिदि । "जिसकी कीर्ति जब तक इस पृथ्वी पर टिकती है, तब तक समझ लो, वह स्वर्ग में रहता है। अपकीर्ति (अकीर्ति) हीनरक है। दूसरा कोई नरक भूलोक में नहीं
ले जाने को तो बुढ़िया भी अपनी पड़ी परलोक में साथ नहीं ले गई, और न ही बादशाह अपना बाग साथ में ले गया। दोनों चले गये और दोनों की अपनी मानी हुई चीजें यहीं पड़ी हैं, लेकिन बादशाह कीन्यायप्रियता के कारण उसकी कीर्ति अमर है। एक कवि इसी प्रसंग पर उद्बोधन कर रहा है
नेकी के कर्म कमा जादुनिया से जाने वाले। यह धन, यौवन संसारी, है दो दिन की फुलवारी। कोई खुशरंग फूल खिला जा रे, दुनिया से... तुझ से धन अन्त छूटेगा, जाने किस हाय लुटेगा। इसे परहित हेत लगा। जा रे, दनिया से... कर दीन-दुःखी की सेगा, यह सेवा जग-यश देवा। यश पाना है तो पा जा रे, दुनिया से...