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________________ ६ ८ आनन्द प्रवचन भाग ६ परोपकार आदि सत्कार्यों के पीछे भी कीर्ति-कामना उनके वास्तविक फल को चौपट कर देती है। कीर्ति-कामना एक प्रकार की सौदेबाजी है। परन्तु बिना कामना किये ही, अपने सत्कार्यों के फलस्वरूप कीर्ति प्राप्त होती हो जो समझदार सज्जन उसे ठुकराना भी उचित नहीं समझते। ऐसे सत्कार्यशील पुरुषों ने कीर्ति के प्रति स्वरूप स्मारक के बदले अपने आदर्शी को अपनाने की प्रेरणा दी है। कुछ ऐतिहासिक उग्रहरण लीजिए— रूस से अलेक्जैंडर प्रथम ने फौज में बड़ी वीरता दिखाई। लोगों ने उसका स्मारक बनाने की इच्छा प्रकट की तो अलेक्जेंडर ने कहा- "मुझे स्मारक से शान्ति नहीं मिलेगी। यदि तुम अपने आप में वह शक्ति, संयम, चरित्र और तेजस्विता भरते हो, जिसने मुझे सर्वत्र विजयी बनाया तो वही मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ स्मारक होगा । " जॉन पीटर तृतीय की स्वर्ण मूर्ति बनाई जाने लगी। उसे पता चला कि उसके नाम पर स्मारक बनने जा रहा है तो उसने यह कार्य रोक दिया और कहा "मैंने जीवन भर जनहित की कामना की है, यदि तुम भो लोक सेवा की भावनाओं को हृदय में स्थान दोगे तो तुम सभी मेरी सोने से अधिक कीमती प्रतिमूर्ति बनोगे । " एक बार नेपोलियन बोनापार्ट की मूर्ति बनाई जाने लगी तो उसने हंसते हुए कहा--"मैं अपने पीछे उन परम्पराओं को जीवित रखना पसन्द करता हूँ, जो वीरता और स्वाधीनता के भाव अक्षुण्ण रखती हैं। स्मारक को मैं अपनी जेल समझता हूं।" ये हैं कीर्ति के प्रति अनासक्त पुरुषों द्वारा कीर्ति के मूल स्रोत की परम्परा को अक्षुण्ण रखने की प्रेरणाएँ । कीर्ति को आँच न लगे, ऐसे कार्य करें। कीर्ति की कामना या आकांक्षा न रखने पर भी मनुष्य का अन्तर्मन इतना तो अवश्य चाहता है कि वह ऐसे कार्य न करे जिससे उसकी कीर्ति को आंच पहुंचे, वह ऐसे कार्य करे, ऐसा आचरण और व्यवहार करें, जिससे कीर्ति बढ़े, कीर्ति की परम्परा चले । पाश्चात्य प्रसिद्ध साहित्यकार शेक्सपियर के शब्दों में आप इसे पढ़ सकते हैं 'Mine honor is my life, both grow in one, tke honor from me and my life is done.' "मेरी प्रतिष्ठा (कीर्ति) मेरी जिंदगी है. वनों साथ-साथ बढ़ती हैं। मुझ से प्रतिष्ठा ले लो तो मेरी जिंदगी ही समाप्त हो जाएगी।" कीर्ति की आकांक्षा न रखने पर भी कीर्ति के प्रतीकसम प्रतिष्ठा का चला जाना, यानी अप्रतिष्ठित होकर जीना भी मनुष्य के लिए मृत्यु के समान है। इसीलिए भगवद्गीता में स्पष्ट कहा है "संभावितस्य चाकीर्तिमांणादतिरिच्यते । " "प्रतिष्ठित (सम्मानित) पुरुष के लिए अकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है।"
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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