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________________ क्रुद्ध कुशील पाता है अकीर्ति ६६ 'मृच्छकटिक' में चारुदत्त ने इसी बात को और जोरदार शब्दों में कहा--- न भीतो मरणादस्मि, देतवलं दूषितं यशः। विशुद्धस्य हि मे मृत्युः गृषजन्मसमः किल । 'मैं मृत्यु से नहीं डरता, केवल अपकीर्ज से डरता हूँ। यशस्विनी मृत्यु मुझे पुत्र जन्म के आनन्द के समान प्रिय होगी।' पाश्चात्य आविष्कारक एडिसन (Addeson) तो यहां तक कहता है"Better to die ten thousand deaths, than wound my honor." "मेरी प्रतिष्ठा (कीर्ति) को क्षति पहुँचाने की अपेक्षा मेरा दस हजार बार मरना अच्छा है।" भारतीय संस्कृति के मूर्धन्य मनीषियों ने एक स्वर से स्वीकार किया है—'कीर्तिर्यस्य स जीवाति' जिसकी कीर्ति विद्यमान है, बह पार्थिव देह से चले जाने पर भी जीवित है।' वास्तव में कीर्ति स्वर्ण या सर्णमूर्ति से भी बढ़कर है। जिसकी कीर्ति समाप्त हो गई, वह जीते हुए भी मृतकवत् है, उसकी नैतिक मृत हो गयी। इसीलिए कीर्ति को जरा भी आंच न आने देना चाहिए। इसीलिए एक पाश्चात्य विचारक वोस्युइट (Bossuet) ने कीर्ति (प्रतिष्ठा) ही आँख से तुलना करते हुए कहा है ---"Honor is like the eye, which cinnot suffer the least impurity without damage." कीर्ति (प्रतिष्ठा) आंख के समान है जैसे आँख बिना क्षति के जरा सी भी गंदगी सहन नहीं कर सकती, वैम ही कीर्ति भी अपवित्रता को नहीं सह सकती। अगर एक बार भी कीर्ति चली गई तो। फेर उसे प्राप्त करना दुष्कर होगा। एक राजस्थानी कहावत भी है सूरत से कीरत बड़ी, बिना पंख उड़ जाय । सूरत तो जाती रहे, कीप्त कदे न जाय । कीर्ति की तुलना संसार की किसी भी श्रेष्ठ वस्तु से नहीं दी जा सकती। पाश्चात्य दार्शनिक थोरो (Thoreau) के विचा में--- "Even the best things are not requal to their tame." "सर्वश्रेष्ठ वस्तुएँ भी महान पुरुषों की क्षति के तुल्य नहीं हो गकती।' निष्कर्ष यह है कि कीर्ति को पाने की लालसा चाहे न नरें, किन्तु कीर्ति को नष्ट होने से अवश्य बचावें, अर्कीर्तिकर कार्य न करें। जीवन-वाटिका की सुरक्षा करने पर ही कीर्तिफल प्राप्त होंगे। मनुष्य की जिन्दगी एक वाटिका है। बाटका का अटा स्थिति में सुरक्षित रखने के लिए उस पर चरों ओर से दृटि रखनी पड़ती है। कुशल माली इस बात का ग ध्यान रखता है कि किस पौधे का पानी देना है, कहीं निकाई की जाए? किसे खाद दी
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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