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आनन्द प्रवचन : भाग ६
भानसिक अशन्ति बढ़ जाती है।
यदि आप कीर्ति एवं प्रतिष्ठा के योग्य गुणों का अपने में विकास कर लेते हैं तो निःसंदेह आपको प्रतिष्ठा और कीर्ति प्राप्त होगी। गुणों की मात्रा जितनी बढ़ेगी उतनी ही आपकी योग्यता विकसित होगी, और उसी अनुपात में लोग आपकी ओर आकर्षित होंगे। लोग गुणों की पूजा करते हैं, व्यक्ति की नहीं, वेष और उम्र की भी नहीं। इसीलिए कहा है---
"गुणाः पूजास्थानं गुणिणु, न लिंगं न च वयः।" "गुणियों के गुण ही पूजा के स्थान होते हैं, व्यक्ति की वेष-भूषा या उम्र पूजनीय नहीं होती।"
जनता सच्चाई को सिर झुकाती है, बनावटीपन को नहीं। टेसू का फूल देखने में बड़ा आकर्षक होता है, लेकिन लोग खुश्बू के कारण गुलाब को ही अधिक पसंद करते हैं। पश्चिम के वक्ता सिसरों का कहना है- कीर्ति सद्गुणों का पुरस्कार है।"
आपके किसी एक गुण का विकास में सामान्य श्रेणी के व्यक्तियों से जितना अधिक होगा उतनी ही अधिक प्रतिष्ठा आपको मिलेगी, कीर्ति भी उतनी ही फैलेगी। महारथी कर्ण के युग में दान देने की परम्परा साधारण-सी थी, लेकिन कर्ण में दान की प्रवृत्ति असाधारणतया लिए हुए थी, इसी काण कर्ण की 'दानवीर' के रूप में ख्याति और कीर्ति बढ़ी।
आजीवन ब्रह्मचारी रहने वाले भीण पितामह, परमभक्त हनुमान, सत्यवादी हरिश्चन्द्र, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम आदि अपने विशिष्ट गुणों के कारण ही उच्चतम प्रतिष्ठा और कीर्तिप्रसार पाने के अधिकारी बन सके थे।
महर्षि दधीचि को देवत्व-स्थापना में अपने आपका जीवित उत्सर्ग कर के देने के कारण जो उधतम प्रतिष्ठा और कीर्ति प्राप्त हुई, वह अन्य को नहीं। श्रवण कुमार में सामान्य लोगों से अधिक बल्कि पराकाष्ठा का स्पर्श करनेवाली मात-पितृ-भक्ति होने के कारण उसे मातृ-पितृभक्त के रूप में सर्वोच्च प्रसिद्धि और कीर्ति प्राप्त हुई। निष्कर्ष यह है कि सामान्य लोगों से गुण में अधिकाधिवत उत्कर्ष प्राप्त करने पर ही मनुष्य प्रतिष्ठा
और कीर्ति अर्जित कर सकता है। जो उसे मंसार में अमर कर देती है। महापुरुषों के नाम पर कीर्ति पाने की कला
कई लोग, जिनमें अधिकांश वे लोग हैं, जो अपने जीवन में कुछ त्याग, सेवा, परोपकार, शीलपालन आदि करना-धरना सहीं चाहते, परन्तु 'सस्ती' कीर्ति पाने के लिए उन-उन महापुरुषों के अनुयायी बन जाते हैं, यहां तक कि उनके भक्त बनने का नाटक करते हैं। जैसे आजकल महात्मा गांधी के भक्त बनकर लोग खादी का वेष धारण कर लेते हैं और जीवन में कोई भी याग, नीतिमत्ता, सदाचार या सत्कार्य को नहीं अपनाते!