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________________ क्रुद्ध कुशील पाता है अकीर्ति ६५ लोग पुण्य का फल (यश-कीर्ति, सुखासुविधा आदि) तो चाहते हैं, परन्तु पुण्योपार्जन करने के लिए जिस सामग्री की जारत है, उसे जीवन में नहीं अपनाते। पाप नहीं चाहते, परन्तु पाप धड़ल्ले के साथ करते रहते हैं। यश, कीर्ति, नामवरी या सम्मान प्राप्त कामे की अभिलाषा प्रायः प्रत्येक मनुष्य में ज्ञात-अज्ञात रूप से होती है। किन्तु जिन सकार्यों या आचरणों से यह सब मिलना सम्भव होता है, उन्हें करने के लिए बहुत कम लोग राजी होते हैं। झूठी कीर्ति या अप्रतिष्ठा के लोभी व्यक्तियों को बहुत अधिकाश्यल करने पर भी अन्त में असफलता ही हाथ लगती है। जिस योग्यता से यश, की या प्रतिष्ठा मिलती है, उसे बढ़ाया न जाए तो यह महत्त्वाकांक्षा अधूरी ही बनी रहेगी। उचित योग्यता के अभाव में भला किसी को कीर्ति या प्रतिष्ठा मिली है ? यह एक माना हुआ तथ्य है कि संसा) की व्यवस्था विनिमय के आधार पर चलती है। एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु मिलती है। रुपया देने पर आपको उसके बदले में खाद्य, बस्त्र आदि अभीष्ट वस्तुएं मिलती हैं। श्रम और योग्यता के बदले में कुछ मिलता है। निष्क्रिय होकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहकर किसी वस्तु की कामना करना बालबुद्धि का परिचायक है। उचित मूज्य चुकाये बिना इस संसार में कुछ भी नहीं मिलता। प्रकृति के इस नियम का उल्लंघन हम और आप कदापि नहीं कर सकते। अतः सीधा-सा उपाय यह है कि जो वस्तु आप प्राप्त करना चाहते हैं, वैसी योग्यता और क्षमता भी प्राप्त करिए। अग्य व्यक्ति की कामनाएं धन्ध्या की पुत्र-कामनावत् असफल रहती हैं। अगर आप चाहते हैं कि लोग आपत प्रतिष्ठा करें, आपको सम्मानित करें, आपकी सर्वत्र प्रशंसा, और मानावरी हो, आगकी कीर्ति सर्वत्र फैले तो आपको उन आदरणीय कीर्तिपात्र पुरुषों की विशेषताओं का अध्ययन करना होगा, जिन गुणों के आधार पर लोग कीर्ति और प्रतिष्ठा के पात्र माने जाते हैं, उनका अनुसरण करेंगे तो आपको भी कीर्ति और प्रतिष्ठा मिलेगी। सम्मान और धडप्पन आपको अनायास ही प्राप्त होगा। इसके विपरीत आप बाहरी टीपता के द्वारा जनताको प्रतिमा कति या प्रतिष्ठा पाने की कामना करेंगे तो महंगा पिल चुनाव भी आपके हाथ कुष्ट नहीं आएगा। धूर्त व्यक्ति चालाकी से बड़ी-बड़ी बातें बनाकर और लोगों को रूप और गुण का सब्जबाग वतार, धन एवं नैभव का मिथ:प्रदान करके यदि जग-सी प्रतिष्ठा या कीर्ति पा भी लेते हैं, तो उन्हें वह आन्तरिक माल्लास, नहीं मिलता जो मिलना चाहिए था। प्रत्युत, जव इस नाटक का पर्दाफाश होता है तो लोग उन्हें धूर्त, पाखण्डी और ठग कहकर तरह-तरह से उसकी भर्त्सना, दनामी और निन्दा करते हैं। आखिर कागज की नाव कब तक चलती, उसे तो डूबना ही था। जालसाजी और धूर्तता का पर्दा खुल जाता है तो कीर्ति के बदले अपदोर्ति या अप्रतिष्ठा ही होती है, जिससे
SR No.091010
Book TitleAnand Pravachana Part 9
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1997
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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