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आनन्द प्रवचन : भाग ६
कई बार ऐसी दशा देखकर मुझे निराश हो जाना पड़ता है कि क्या सत्कार्यों का इतना दुष्काल पड़ा हुआ है कि कीर्ति के भूखे लोग बिना ही कुछ धर्माधरण या सत्कार्य किये येन-केन-प्रकारेण कीर्ति लूट लेते हैं। कई बार संस्था के लिए तस्कर-व्यापारियों या ब्लेक मार्केटियरों से धन निकलवाने हेतु उनको प्रशंसा करते हैं, उन्हें उच्च पद या उच्च आसन देते हैं, और बदले में वे तथाकथित कोर्तिलिप्सु धनिक भी उन पण्डितों या विद्वानों की प्रशंसा करते हैं। उस समय उस का की उक्ति बरबस याद आ जाती है, जिसमें कहा गया है
उष्ट्राणां विवाहे तु गायन्ति। किल मर्दभाः।
परस्परं प्रशंसन्ति । अहोरूपमहोध्वनिः। __ ऊँटों के विवाह में गीत गाने वाले गदर्भरान थे। गदर्भराज कह रहे थे-"धन्य हो महाराज आपका रूप। ऐसा रूप तो किसी को भी नहीं मिला।" इस पर उष्ट्रराज भी कहने लगे---"धन्य है गदर्भराज ! आपकी आवाज को, कितने सुरीले स्वर में आप गीत गाते हैं।' दो दिनों की झूठी वाहवाही, धोधी प्रशंसा और कृत्रिम प्रतिष्ठा एवं शोभा के लिए लोग विवाहों में कितना आडमार, प्रदर्शन एवं चकाचौंध करते हैं। क्षणिक कीर्ति के लिए व्यक्ति कितने उखाड़-छाड़ करता है। अधिकांश धन तो तथाकथित क्षणिक कीर्तिलिप्सुओं का, बैंड बाजे एवं विधुत की चमक-दमक में, पार्टी देने में, तथा पत्रिका आदि छपवाने में व्यर्थ हो जाता है, परन्तु यदि वही धन चरित्र-निर्माण में, परोपकार में, सत्कार्यों में या प्रोल-पालन में लगता तो उसकी कीर्ति का कलश चढ़ जाता। ___मैंने देखा कि बड़े-बड़े मन्दिरों तथा मेरठ जिले की और धर्म स्थानकों पर कलश चढ़ाये जाते हैं। वे कलश प्रायः मन्दिर या स्थानवरकी शोभा या कीर्ति में वृद्धि करने तथा जनता को दान, धर्माराधना या सत्कार्य करने की शरणा देने के हेतु चढ़ाए जाते हैं। परन्तु कलश कब चढ़ता है ? वह चढ़ता है मन्दिर या सपानक के निर्माण कार्य की पूर्णाहुति होने के बाद । इसी प्रकार कीर्ति भी मानव-जीवन रूपी मन्दिर के निर्माण होने के बाद कलश के रूप में चढ़ती है। जीवन-मन्दिर का निर्माण तो कया ही नहीं, उसकी नींव तो डाली ही नहीं, उसके नींव की ईट के रूप में दान, पुण्य, पोपकार, सेवा आदि सत्कार्य तो किये ही नहीं और लगे हैं कीर्ति कलश चढ़ाने। यह तो कैसी ही बात हुई कि नीचे तो लंगोटी भी नहीं है, सिर पर बड़ी पगड़ी बांधी जा रही है। कितनी हास्यास्पद बात है यह। कीर्ति चाहते हैं तो कीर्तिपात्र बनें
___ लोग कीर्ति तो चाहते हैं पर कीर्ति के पात्र बनने के लिए जिन सदाचारों, सद्गुणों और सत्कार्यों की आवश्यकता है, उन्हें अपनाने के लिये तैयार नहीं हैं। इसीलिए एक कवि ने कहा
पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः। फलं पापस्य नेछन्ति, पापं कुर्वन्ति यत्नतः।