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क्रुद्ध कुशील पाता है अकीर्ति ६३ काट लिए। पूंछ अपने गले में डाले और लान हाथ में लिए हुए वह पास के गांव में गया। वहाँ घूमते हुए उसे जो भी ग्रामीण मिल जाता, उसके सामने अपनी शेखी बघारते हुए कहता - "देखो जी ! इतने बई बाघ को मैंने अपने घर के आंगन में भार डाला।" जो भी सुनता, वह उसकी प्रशंसा करते हुए धन्य-धन्य कहता। अपना बखान सुनकर गोपालक मन में फूला नहीं समाया । इस प्रकार अपनी पत्नी को मिलने वाली कीर्ति उसने स्वयं हड़प ली और अपना नाम' 'बाघमार' रख लिया।
इस प्रकार कई लोग दूसरों के द्वारा किये गये अच्छे कार्य का श्रेय स्वयं लूट लेते हैं। परन्तु इस प्रकार अर्जित की हुई कीर्ति चिरस्थायी नहीं होती है। ऐसे ही कीर्तिलिप्सु लोगों के लिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है
तुलसी जे कीरति चहीं, पर की कीरति खोय।
तिन के मुँह मसि लागि है, मिटहिं न मरिहैं न पोय । आगरा के एक बहुत प्रसिद्ध नेता स्वयं एम०ए० पास न होते हुए भी अपने नाम के आगे एम०ए० लगाते थे। इस पर कुछ समझदार लोगों व सरकार ने उनसे जवाब-तलब किया तो उन्होंने समाधान किया कि एम०ए० का अर्थ आपने नहीं समझा। एम०ए० का अर्थ है- मेम्बर ऑफ आर्यसमाज। मेम्बर का 'एम' और आर्यसमाज का 'ए' दोनों मिलकर एम०ए हो गया। कहिए, ऐसे आदभी की कीर्ति अर्जित करने की चालाकी को आप कैसे पड़ेंगे ?
कई लोग कीर्ति की लालसापूर्ति के लिए अथवा नष्ट हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के लिए, अथवा अपने अपकृत्यों, लकर्मो से होने वाली बदनामी को रोकने के लिए थोड़ा-सा दान दे देते हैं, और अखबारों में बड़े बड़े हैडिंगों में नाम छपवा देते हैं। अपने फोटो किसी काम के करने का कृम्मि प्रदर्शन करने हेतु खिंचवा लेते हैं। कई लोग सस्ती कीर्ति पाने के लिए किसी मनिर या धर्मशाला में कुछ रुपये देकर अपने नाम का पत्थर लगवाते हैं, कुछ लोग अपनो कामनापूर्ति हो जाने पर किसी मन्दिर या संस्था में इसी आशय में दान देते हैं। कुछ लोग दान करते ही तब है जब वे देखते हैं कि उनकी प्रशंसा हो, प्रतिष्ठा बढ़े, गुणगान हो। इस प्रकार के दान से कीर्ति खरीदी जाती है। परन्तु याद रखिये केवल दाना से चिरस्थायी और वास्तविक कीर्ति नहीं मिलेगी। निस्वार्थ भाव से दान, पुण्य, सत्कार्य, धर्माचरण, सदाचार पालन आदि करने से। धन से कितनी सस्ती कीर्ति मिल सकती है, उसका यह नमूना है। परन्तु इस युग में पता नहीं लोगों को क्या हो गया है, समाज में गुण नहीं, एक मात्र धन को देखकर, उस व्यक्ति से धन निकलवाने के लिए कीर्ति को निशानी के रूप में सम्मान-पत्र, अभिनन्दन-पत्र आदि दिये जाते हैं। उसके नाम की तख्ती लगाई जाती है। आमंत्रण पत्रिकाएं छपती हैं, तब उनके नाम के पूर्व बड़े-बड़े विशेषण-दानवीर, नररल, धर्ममूर्ति, पुण्यवान आदि लगा देते हैं। पदवियों के पुष्ठल्ने भी उनकी कीर्ति के बदले अपकीर्ति का डंका पीटते हैं।