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• लेखा -जोखा
[८०] माँसाहार मत करो, शिकार मत खेलो, गवि-भोजन का त्याग करो, तप करो, व्रत ग्रहण करो। आदि-आदि अनेक प्रकार ने नमूने हमारी दुकान में हैं। इसके अलावा जो एक महान् विशेषता और भी है, वह सन्त तुकाराम जी ने दूसरे चरण में बताई है -
नका करू कोणी घेतारे आलम, वारितो तुम्हास फुकाचे हे॥२॥
नका करो, अर्थात् मत करो। परमार्थ रूपी माल- को लेने के लिए आलस्य मत करो। क्योंकि इस दुकान की सबसे बड़ी महत्ता यह है कि इसका माल खरीदने में आपको पैसा खर्च नहीं करना पड़ता, कुछ भी देना नहीं होता। बिना मोल दिये ले जाओ!
आपकी दुनियादारी की दुकान में तो कोई ग्राहक किसी वस्तु को खरीदता है तो आप उसी समय बदले में पैसे ले लेते हैं। किन्तु हमारी दुकान से आप चाहे जितना माल ले जॉ, हम बदले में कुछ भी नहीं लेते। क्या किसी सन्त को आपने अपनी चीजों के बदले में बुछ माँगते देखा है? नहीं, अगर संत बदले में कुछ माँगने लग जायें तो सारा मामला ही गड़बड़ हो जाएगा। और वही हाल होगा -
गुरु लोभी चेला लालची, दरिनों खेले दाँव।
दोनों डूबे बापड़ा, बैठे पत्थर की नांव। यथा देव तथा पूजा
गुरु समझता है, यहाँ भरपूर दक्षिणा मिलेगी। दूसरे घरों में पाँच रुपये मिलते हैं पर यहाँ सात का डौल दिखाई देता है। दूसरी ओर चेला विचार करता है कि गुरुजी के मेरे जैसे अनेक भक्त हैं। सभी दक्षिणा देंगे तो इनके पास वैसे ही बहुत हो जाएगा अत: दो रुपये ही देना चाहिए।
ऐसी हालत में गुरु और चेला दोनों ही ड्रबे बिना रह सकते हैं क्या? लोभ रूपी पत्थर की नाव में बैठकर उनमें से एक भी संसार-सागर के किनारे पर नहीं पहुँच सकता। और यह कहाश्त अक्षरश. सत्य साबित हो जाती है कि लालची गुरु और चेला दोनों ही दाव खेलते हैं, किन्तु इस लोभरूप पत्थर की नाव में बैठे हुए, किनारे पर पहुँचने के प्रयत्न में बेचारे पार नहीं पहुंच पाते, डूब जाते हैं।
वस्तुत: लोभ-वृत्ति प्रत्येक प्राणी के पतन का कारण बनती है, किसी की भी हित-साधना में सहायक नहीं बन सकती तभी कहा गया है :
__ "केषां हि नापदां शुरतिलोभान्धबुद्धिता?" अति लोभान्ध बुद्धि किनके लिए विपत्ति का कारण नहीं बनती? अर्थात्