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________________ •[८१] आनन्द प्रवचन : भाग १ बिना किसी अपवाद के यह सभी के लिए आपत्तियाँ लाने वाली होती है। इसीलिये संत तुकाराम जी कहते हैं कि परमार्थ की इस दुकान से माल खरीदो! क्योंकि यहाँ न माल बेचने वाले को पैसा लेना है, और न माल लेने वाले को देना ही है। क्रय और विक्रय, दोनों में ही धन का काम नहीं है। गुरु-दक्षिणा कैसी? पर हाँ, आप यह भी न समझें के संत आपसे अपने माल के बदले में किसी भी बात की अपेक्षा ही नहीं रखी। सन्त भी चाहते हैं, पर वह क्या वस्तु है? केवल आपकी उत्तम भावनाएँ! आपकी भावनाएँ दिन-प्रति दिन निर्मल और उच बनती जाएँ, सन्तों के लिए बस यही संतोष की बात होती है। उन्हें न वेतन की आकांक्षा रहती है, और न ही गुरुदक्षिणा की। बिना कुछ लिए निस्वार्थ भाव से प्राणियों की कल्याण कामना रखते हुए वे ज्ञान-दान देते हैं। जिस प्रकार मूर्तिकार पत्थर को हथौड़े मार-मार कर प्रतिमा का रूप देता है उसी प्रकार सन्त अज्ञानी प्राणी को पुन:-पुन: चेतावनी देकर उसकी आत्मा को विशुद्ध बनाने का प्रयत्न करते हैं। पत्थर, प्रतिमा और पूजा समझने के लिए एक उदाहरण आपके सामने रखता हूँ। एक मन्दिर में बड़ी भव्य प्रतिमा थी। प्रतिदिन प्रात:-सायं सैकड़ों भक्त आकर उसके चरणों में फल, फूल, नैवेद्य आदि चढ़ाया करते थे तथा प्रतिमा के सामने ही खड़े हुए एक खंभे से टिककर बैठते और प्रार्थना किया करते थे। यह सब देखकर खंभे को बड़ा दुख होता था। पर करता क्या? क्रोध से जल-भुनकर रह जाता। आखिर एक । दिन दोपहर को जब मन्दिर सुनसान था, खंभा प्रतिमा से बोला "यह क्या बात है? आखिर हम दमों ही खान से तो निकले हैं। फिर भी सैंकड़ो व्यक्ति आकर तुम्हारे चरणों में मस्स्क झुकाते हैं, चढ़ावा चढ़ाते हैं और तुम्हारी पूजा करते हैं। मेरी ओर कोई दृष्टिफल भी नहीं करता, उलटे मेरी ओर पीठ करके मुझसे टिककर बैठते हैं। यह मुझसे सहन नहीं होता।" खंभे की बात सुनकर प्रतिमा मुस्कराई और दयार्द्र होकर बोली - भाई! तुम्हारा कथन सर्वथा सत्य है। हम दोनों का जन्म स्थान एक ही है और दोनों के शरीर का निर्माण भी एक-सा ही हुआ है। किन्तु आज जो अन्तर तुम हमारे बीच देख रहे हो तथा मेरी पूजा होती देखकर दुख का अनुभव कर रहे हो उसका कारण सिर्फ यही है कि मेरे हितैषी मूर्तिकार है हथौडे की असंख्य चोंटे मुझ पर की हैं। नाना प्रकार से मुझे तराशा है और मेरे एक-एक अंग को टाँची मार-मारकर सुधारने का प्रयत्न किया है। मैंने वे सब चोटें हँसते हुए सहन की, कभी विरोध नहीं किया, एक आह तक जबान से नहीं मिकाली। बस इसी का परिणाम है कि आज मैं पूजा के योग्य बनी हूँ।"
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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