SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ • लेखा -जोखा [७८] और छ: ग्यारह। एक घट गया। आठों आ चौसठ। छ: और चार दस। बारह से ग्यारह और ग्यारह से दस ही रह गए। पर अभी क्या हुआ? आठ नम बहत्तर। सात और दो नौ। बारह से नौ पर आए। जैसे कपूर की टिकिया पड़ी-पड़ी उड़ जाती है, उसी तरह जब आपके पुण्य-कर्मों का उदय होता है, लक्ष्मी आपके पास रहती है और पुण्यवानी का अभाव होते ही उसके जाते देर नहीं लगती। और आठ दस अस्सी के समान आप वहीं के वहीं रह सकते हैं। शम एवं परं ज्ञानम् परमार्थ का अंक नौ का है। यह रुदा एक सा रहने वाला है। आत्मोन्नति के इच्छक साधक को सम-रस में रहना आवश्यक है, इसी के द्वारा वह अपनी आत्मा के मैल को उत्तरोत्तर धो सकता है। कहा भी है - "योगारूढः शमादेव शुद्धगत्यन्तर्गतक्रियः।" ज्ञानसार - आभ्यन्तर क्रियापात्र योगी पुरूष मो शम व्रत से ही, यानि विकारों को जीतने से ही शुध्द होते हैं। तथा इसके विपरीत जिन प्राणियों में शम-भाव नहीं होता वे मनुष्य होकर भी मनुष्य कहलाने का अधिकार नहीं रखते - "शमो हि न भवेद्वेषाम् ते रा: पशुसन्निभाः।" - तत्त्वामृत जिन पुरुषों में शम-भाव का अभाव है, 6 मनुष्य पशु के समान ही हैं। इसलिए प्रत्येक मानव को सम-भाव रखते हुए, अर्थात् निर्विकारी बनते हुए सुकृतरूपी धन को कमाने का प्रयत्न करना चाहिए। किसी कवि ने कहा भी है जब सुकृत धन को कमाऊँगा, मैं वही दिन धन्य मानूँगा। कवि की भावना है कि, मैं अपने 1 उसी दिन को धन्य समशृंगा, जिस दिन सुकृत्य रूपी धन को कमा लूँगा। दुनियादारी का धन तो आप कितना ही क्यों न इकट्टा कर लें, वह टिकने वाला नहीं है। न तो वह चिरस्थायी रहता है और न ही आपकी आत्मा को संसारमुक्त करने में समर्थ हो सकता है। किन्तु सुकृत्य रूपी धन अगर आप कमा लेंगे तो वह आपका रहेगा और आपकी आत्मा को स्वाधीन बनाने में सहायक होगा। मुक्ति-प्रदाता मनोरथ प्रत्येक श्रावक को अपने हृदय में नेतेर्मल एवं उच्च विचारों को स्थान देना
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy