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________________ .[७७] आनन्द प्रवचन : भाग १ अब आगे चलिये। आठ तीन चौबीस। दो और चार छः। एक और घट गया। आप चाहते तो बढ़ाना है पर संसार घटा देता है। आगे है आठ चौंक बत्तीस। तीन और दो पाँच बचे। इसके बाद आठ पंजा चालीस; लीजिये पाँच से घटकर चार ही रह गए। क्या कहा जाय? चाप लोग धन कमाने में और उसकी सुरक्षा में प्राणपण से लगे रहते हैं किन्तु यः धन पानी के बुलबुले के समान नष्ट हो ही जाता हैं। इसीलिये कवि सुन्दरदास प्राणियों को बोध देने का प्रयल करते हुए कहते हैं माया जोरी जोरी नर, राखत यतन करी, कहत है एक दिन, मेरे काम आई है। तोहि न रहत कछु बेर न लात सठ, देखत ही देखत, बबूला सो बिलाई है। अर्थात् प्राणी माया जोड़-जोड़कर बड़े यत्न से उसे भण्डार में, तिजोरियों में या जमीन में गाड़कर रखता है और कहता है कि यह एक दिन मेरे काम आयेगी। किन्तु वह स्थिर नहीं रहती। देखते-देखते ही पानी के बुलबुले के समान संसार सागर में विलीन हो जाती है। इस धन के लिए आप अपनी जन्मदात्री माता को, जिसके ऋण से कभी भी उऋण नहीं हुआ जा सकता, छोड़ देते हो। विवाह में जीवन पर्यन्त साथ देने की प्रतिज्ञा करने पर भी अपनी ज्नेहशीला पत्नी को तथा वर्षों तक तरसने के बाद प्राप्त हुए बाल-बच्चों को भी छोड़कर परदेश चले जाते हो - धन के कारण देश प्रदेशां, घा गिणे नहिं छाया रे। करे नौकरी बहु नर-नारी, जो माया रे.............। अपनी जन्मभूमि छोड़कर हजारों मील दूर आप देश-विदेश में जाते हैं। वहाँ बाजारों में भाग-दौड़ करते हैं। सर्व:-गर्मी की परवाह किये बिना कड़ी मेहनत में संलग्न रहते हैं। भूख-प्यास सताती है। किन्तु ग्राहकों के विद्यमान रहने से इन्हें भूल जाते हैं। सोचते हैं - पानी कहाँ जाएगा। ग्राहक से निपटना जरूरी है। और अगर आपके पास व्यापार के लिए पूँजी नहीं होती तो दूसरों की नौकरी करते हो। अफसरों की भली-बुरी सुनते हो, पर धन की लालसा को नहीं छोड़ते। हजार प्रयत्न करते हुए भी आप निराश नहीं होते। क्योंकि आप आठ के अंक में रहते हैं। चाहे आपको व्यापार में हानि हो जाय? आज के लखपति आप, कल औरों के कर्जदार बन जायें, पर सेभ नहीं छूटता। पुनः अर्थ-प्राप्ति के लिए चौगुनी शक्ति से जुट जाते हैं पर परिणाम क्या होता है? धन फिर मिलता है और फिर चला जाता है। जैसे - आर छ: अड़तालीस। चार और आठ बारह। एकदम लौटरी ही निकल आई। ड्यौढ़े हाँ गए। आपकी खुशी का पारावार ही नहीं रहा। किन्तु क्या यह स्थिति रोज रह सकती है? नहीं, आठ सात छप्पन। पाँच कला शक्ति से जुट जात जैसे - आर छ: अपका खुशी का पा
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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