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________________ • [ ७५ ] नफे का व्यापार व्यापार शब्द आप लोगों के लिये नया नहीं है। इससे होश सम्हालने से लेकर अब तक की आपकी गहरी पहचान है। आप दुकान खोलते हैं, व्यापार करते हैं और हजारों-लाखों के बारे-न्यारे करूंसे रहते हैं। कभी गहरा नफा और कभी गहरा घाटा, इसी चक्कर में आप घूमते रहते हैं। किन्तु इससे कभी सन्तुष्ट होते हुए दिखाई नहीं देते। आपके हृदय में हमेशा उथल-पुथल मची रहती है। क्योंकि आपका व्यापार डगमगाने वाला है, आपको दुकान का माल क्षणभंगुर है, नष्ट होने वाला है तथा अनेक प्रकार की कठिनाईयां में डालने वाला है। इसलिए ज्ञानी पुरूष इसकी भर्त्सना करते हुए कहते हैं - आनन्द प्रवचन भाग १ - अहो महाकष्टमनर्थमूलं, तदर्ज 1 च प्रतिपालने च । प्राप्तेऽपि दुःखं प्रगतेऽपि दुःखं, धिग् धिग् धनं कष्ट निकेतनं तत् ॥ अहो, यह धन महा कष्टदायी है। अनेक अनर्थों का मूल है। इसे प्राप्त करने में तथा इसकी रक्षा करने में अक संकट सहने पड़ते हैं। धन आता है। तब भी महादुख देता है और विलीन होता है तो भी महान् कष्टदायी होता है। ऐसे कष्ट के भंडार धन को बारम्बार धिक्कार है। आत्मा का साथी धन आत्मोन्नति के इच्छुक पुरूष ऐसे धन का व्यापार कभी नहीं करते। वे ऐसा माल भी कभी नहीं खरीदते, जो कि नहः हो जाने वाला हो। उनका सतत् प्रयत्न ऐसे ही माल का संग्रह करने के लिए कता है, जो उनके साथ चलने वाला हो। आपको आश्चर्य होगा यह सुनकर कि कोई माल आत्मा के साथ चलनेवाला भी होता है? हाँ, यह अकाट्य सत्य है। ऐसा माल भी आपको मिल सकता है जो आत्मा के साथ चलेगा। पर वह आपके बजारों में नहीं मिलेगा। ऐसे अनमोल माल की दुकानें आपको विरली ही मिलेंगी। किसी मुमुक्ष प्राणी ने एक ऐसी दुकान का संकेत दिया है और वहाँ से कभी नष्ट न होने वाला माल खरीदने की प्रेरणा दी है - त्रिशलानंदन की खुली दुकान जी, तुम माल खरीदो। त्रिशला नन्दन भगवान महावीर त दुकान खुली है। इस दुकान में धोखा नहीं है। यहाँ का माल नकली और नाशवान नहीं है तथा इसमें कभी घाटा नहीं होता, नफा ही नफा रहता है। एक और भी आश्चर्य की बात तो यह है कि हमारी इस दुकान का माल दृश्य माल नहीं है फिर भी यह है, और इतना है, कि कभी कम नहीं होता। इसमें से चाहे जितना खरीदा जाय, चाहे जितना उठा लिया जाय, दुकान पूर्ववत् भरी रहती है। आपकी दुकानों में जबकि थोड़ा मा भी माल रख दिया जाय, वहाँ की
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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