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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १ सांसारिक वासनाओं और क्रियाकांडों को ही धर्म समझने वाली अज्ञानता से मुक्त रहेगी। मोक्ष किसी अन्य स्थान पर नहीं होता है। वह स्वयं आत्मा में ही निहित होता है। एक श्लोक के द्वारा भी यही बताया गया है मोक्षस्य न हि वासोऽस्ति न ग्रामाकारमेव वा। अज्ञान-ह्रदय-गन्धि-नाशो मोक्ष इसी स्मृतः॥ - मोक्ष किसी नियत स्थान पर रखा हुआ नहीं है और न ही उसे खोजने के लिए किसी दूसरे गांव जाना पड़ता है। हृदय की अज्ञान-ग्रन्थि का नष्ट होना ही मोक्ष कहा जाता है। ___बंधुओ, अब आप समझ गए होंगे कि विषय और कषाय ही आत्मा के सहज स्वभाव और ज्ञान पर आवरण बन छाये हुए होते हैं और इन्हें हटा देने पर आत्मा अपने सहज स्वभाव को प्राप्त कर लेती है तथा सम्यक ज्ञान प्राप्त करके, अजर अमर शांतिमय लोक में अपना स्थान बनाती है। कषायों का परित्याग करने पर ही संसार को घटाने वाली प्रवृत्तियों का आविर्भाव होता है तथा कर्मों का आश्रव रुकता है। इसे ही धर्म नाम दी संज्ञा दी जाती है। ऐसे धर्म का ही वीतराग महापुरुषों ने निरूपण किया है जेसे अपनाना तथा उसमें बताए गए विधि - निषेधों का पालन करना प्रत्येक मुमुक्षु का कर्तव्य है। अगर वह ऐसा करने में समर्थ हो जाता है तो संसार की कोई भी शक्ति उसे शाश्वत सुख का अधिकारी बनने से नहीं रोक सकती। ओऽम् शांति
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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