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________________ • कषाय- विजय [६० ] भोगता है। इसलिए आवश्यकता ही नहीं, अनिर्वाय है कि जन्म मरण के मूल का सिंचन करने वाले इन विषय कषायों से अलग रहने का प्रयत्न किया जाय। इन्हें समूल नष्ट करने में एकमात्र धर्म ही सहायक हो सकता है। कषाय- विष नाशक धर्म धर्म से हमारा तात्पर्य बाह्य अबर या दिखावे से नहीं है। पूजा-पाठ कर लेना, गंगास्नान कर आना, तिलक छापे लगा लेना या केवल मुख वस्त्रिका बाँधकर अड़तालीस मिनिट तक एक स्थान पर बैठ जाना ही धर्म नहीं हैं। वरन जीवन में सद्गुणों, सद्वृत्तियों तथा अविकारी आवों का लाना ही धर्म है। दूसरे शब्दों में जीवन का मर्यादित एवं सुसंस्कृत होना ही धर्म है सच्चा धर्म कषाय- विष का नाश करते हुए जीवन के लिए परम रसायन । सिद्ध होता है। संक्षिप्त में धर्म की परिभाषा है - "वत्थु सावे धम्मो ।" प्रत्येक वस्तु का जो सहज स्वभाव है वही धर्म है। यथा जल का स्वभाव शीतल रहना, अग्नि का स्वभाव उष्णता बनाए रखना, आकाश का स्वभाव अवकाश देना और भूमि का स्वभाव भारवहन करना है। उसी प्रकार आत्मा का सच्चा और सहज स्वभाव है, शुद्ध, निष्कलंक और निर्विकार होकर अनंत सौख्यप्रदान करने वाले लोक की ओर उठना तथा अपनी अनन्तशक्ति को जागृत करना । किन्तु इस अनन्त शक्तिशाली भात्मा को भी विषय कषाय कर्म-बन्धनों में जकड़ लेते हैं। आप सब देखते हैं और अनुभव भी करते हैं कि इंद्रियों के द्वारा भोग-विलास के पदार्थों का उपभोग कर मन संतुष्ट होता है और ये भोगापभोग कर्म-बंधनों के कारण बनते हैं। किन्तु ये जड़ द्रव्य भी सचिदानंद आत्मा को इतना नहीं बाँध सकते, जितना मन के विकारी भाव बाँधते हैं। मन के भावों से ही आत्मा बँधती है और उन्हीं से मुक्त भी होती है। इसीलिए कहा जाता है। "मनसा कल्प्यते बम्योमोक्षस्तेनैव कल्प्यते।" विवेकचूड़ामणि जिस मन की शक्ति के द्वारा संसार का बंधन किया जाता है, उसी मन की शक्ति के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति भी की जा सकती है। अतः मुक्ति के इच्छुक प्राणी व अपनी आकांक्षा पूर्ण करने के लिए इंद्रियों पर तथा मन पर अंकुश लगाना पड़ेोम काम, क्रोध, मोह, लोभ आसक्ति तथा लालसा आदि पर विजय प्राप्त कर अनासक्ति और निर्वेद भाग को अपनाना होगा। क्योंकि जब तक मन पर विजय प्राप्त नहीं की जाएगी, कषायों के तुफानों को रोकना असंभव होगा। प्राणी उसी अवस्था में मुक्त हो सकेगा जबकी उसकी आत्मा
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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