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________________ . कषाय - विजय [५६] कपट-रूप वक्रता का त्याग कर जीवन में सरलता को स्थान दे। सरलता के अभाव में की जाने वाली समस्त साधनाएँ केवल कायकेश ही होती हैं, वक्र हृदय में धर्म के अंकुर नहीं जमते। वह सरल आत्मा से ही टिकता है। क्योंकि सरलता से शुद्धता आती है और शुद्धता के आने पर धर्म का आना अनिवार्य है। चण्डाल चौकड़ी के तीन मित्रों का वर्णन हम कर चुके है। अब चौथे का नम्बर है, जिसका नाम है प्रेमसिंह। एमसिंह का ही दूसरा नाम है 'लोभ'। लोभ के विषय में आप लोगों को अधिक ताने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे आप चिर-परिचित हैं। कोई भी नई वस्तु देखें तो आपकी इच्छा होती है कि इसे प्राप्त करें। अपनी वस्तु से आपली संतोष नहीं होता, दुसरों की वस्तुओं को भी हड़पने की इच्छा होती है। कहाँ तक इसके विषय में कहा जाय? लोभ के आक्रमण के कारण आपके पास कित्ता भी धन-वैभव क्यों न इकट्ठा हो जाय, उससे भी अधिक पाने की लालसा बढ़ती है। इसीलिए कहा गया है - जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढइ । दो मास कयं कर्ज कोडीए वे न निठ्यं ।। - उत्तराध्ययन८ अर्थात जैसे-जैसे लाभ होता है वैसे-वैसे लोभ बढता जाता है। लाभ ही लोभ को बढ़ाता है। दो माशे सोने के लिए आया हुआ ब्राह्मण एक करोड़ में भी संतुष्ट नहीं हुआ। लाभ और लोभ में विशेष और नहीं है। सिर्फ एक मात्रा ही बढ़ती है। किन्तु उस मात्रा के कारण ही कितना अनर्थ होता है। लोभ के आते ही अनेक घर बर्बाद हो जाते हैं। आपने सुना होगा - अनेक ठग भोली बहनों को लोभ के फन्दे में फंसाकर लूट लेते हैं। एक तोला सोने का दस तोला सोना बना देने का लालच देते हैं और उनके मूल को भी ले उड़ते हैं। लोग यह नहीं सोचते कि उस धूर्त व्यक्ति में अगर इतनी शर्फि होती तो वह स्वयं दर-दर क्यों भटकता? पर लोभ का जाल ऐसा ही है कि व्यक्ति उधार लेकर भी उस में फँस जाते लोभ पर विजय प्राप्त करने वाले सन्त महात्मा सदा सुखी रहते हैं। वास्तव में ही हमें कोई क्या ठगेगा? हमारे पास है भी क्या? पात्र लकड़ी के हैं, उन्हे लेकर कोई क्या करेगा? और वस्त्र सीमित रहते हैं। पैसा-धैला रहता नहीं की उसकी चोरी का डर हो या ठगे जान का। संक्षेप में यही कि हमें चोरी अथवा ठगी, दोनों में किसी का भी भय नहीं रहता। बुजुर्गों के द्वारा मैने सुना था कि एक साहूकार की हवेली थी और उमर पास में ही एक स्थानक था। एक बार चोर आए। वे हवेली में घुसना चाहते थे, किन्तु स्थानक की खिड़की से उन्हें एक थैली वहाँ पड़ी हुई दिखाई थी। वोर प्रसन्न हुए कि थैली में कुछ धन-माल
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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