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________________ • [५५] आनन्द प्रवचन : भाग १ अपनी पत्नी से कुछ कहा क्यों नहीं ?" सुकरात हँसते हुए बोले - "जैसे मईस बिगड़े हुए घोड़े को साधता है, मैं भी इसे सुधारने का प्रयत्न कर रहा हूँ. दूसरे इसके क्रोध को सहन करके संसार के अन्य व्यक्तियों के दुर्व्यवहार को समन करना सीखता हूँ।" मित्र सुकरात की बात सुनकर मौन हो गया। पद्य में क्रोध-रूप जुझारसिंह के दूसा मित्र का नाम मानसिंह दिया गया है। मानसिंह के नाम से अभिमान को संबोधिा किया है। अभिमानी व्यक्ति अहंकार के कारण अपने आपको महान समझता है तथा औरों को तुच्छ। किन्तु इसका परिणाम उलटा हो जाता है। भले ही वह स्वयं को महान समझे किन्तु संसार की नजरों में वह महान न रहकर क्षुद्र साबित होता है तथा लोगों की नजरों से गिर जाता है। कहा भी गया है : “मानेन सर्वजन-निन्दिल वेशरूपः।" । -अहंकार से सभी मनुष्यों द्वारा निंदा का पात्र ही बनना पड़ता है। अभिमानी व्यक्ति का स्वभाव होता है कि वह औरों के कार्यों को नगण्य मानता हुआ अपने कार्यों को सर्वोत्तम साबित करे। उसके कान सर्वदा अपनी प्रशंसा सुनने के लिए आतुर रहते हैं। किन्तु उसकी : इस आकांक्षा के पूर्ण होने में उसका अहंकार बाधक बन जाता है तथा उसकी प्रगोते को रोक देता है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि अभिमानी व्यक्ति गगन को छूने का प्रयत्न करता है किन्तु धराशायी होकर संसार के समक्ष उपहास का पात्र बाकर रह जाता है। जुझारसिंह और मानसिंह का तीसरा भाई है मायीदास। अर्थात् माया और कपट। माया हृदय की सरलता को नष्ट कर देती है तथा कुटिलता को आमंत्रित करती है। और हृदय में जहाँ कुटिलता आई । कि वहाँ से अन्य सद्गुणों का लोप होना प्रारंभ हुआ समझिये। हृदय की वक्रता आपवा कपट साधक की समस्त साधना और तपस्या को मिट्टी में मिला देता है।भगवान महावीर का कथन है - जड़ विय नगिणे किसे चरे, जइ विय भुंजिय मासमंतसो। जे इह मायाई मिजई, आगंता भायणंतसो। सूत्रकृतगि सूत्र - साधना के क्षेत्र में साधक वस्त्रपात्रादि का परित्याग कर देता है, वर्षों तक नग्न रहकर घोर तपस्या करते हुए शरीर का खून व मांस सुखा देता है। किन्तु यदि वह माया की ग्रंथि का भेदन नहीं करता तो धनन्त बार उसे गर्भ में आना पड़ता इसलिए प्रत्येक व्यक्ति व मोक्षाभिलाषी जाधक के लिए अनिवार्य है कि वह
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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