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________________ . कषाय - विजय पद्य मनोरंजक होने के साथ ही शिक्षा-प्रद भी1 है। यद्यपि कवि ने इसमें व्यक्तिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग किया है किन्तु इनके पीछे रहस्यमय तरीके से कषायों के कुप्रभावों का दिग्दर्शन किया गया है। पद्य में लोभ को प्रेमसिंह की, क्रोध तो जुझारसिंह की, अभिमान को मानसिंह की तथा माया या कपट को मायीदास की व्यंगसूचक संज्ञा से विभूषित किया है। तथा बताया है कि, ये चारों भाई, दूसरे शब्दों में यह चण्डाल चौकड़ी जीवात्मा को सरोते के बीच में दबी हुई सुपारी के समान जकड़ लेती है तथा कतरी जाती हुई सुपारी के समान नाना प्रकार के कष्टों में डालती है। क्रोध जिसे जझारसिंह नाम से सम्बोधित किया गया है, उसका आक्रमण होने पर व्यक्ति बेभान हो जाता है तथा हिताहित का ज्ञान भूलकर अकरणीय करने पर उतारू हो जाता है। आवेश के कारण उसके विवेकरूपी नेत्र बन्द हो जाते हैं। किन्तु जिला उचित-अनुचित का भान छोड़कर इच्छानुसार कह जाती है। किसी पाश्चात्य विद्वान का भी कथन है - "Any angry was opens his mouth and shuts his eyes." क्रोधी व्यक्ति अपने मुँह को खुला रखता है पर ऑप्टों को बंद कर लेता है। तात्पर्य यही है कि वह विवेकपूर्वक विचार करना छोड़कर अकथनीय कहता है, वह यह नहीं देखता कि मैं किससे बात कर रहा हूँ। ऋषि भाषित सूत्र में भी बताया गया है - कोवाविद्धा ण याणन्ति मातरं पितरं गुरुं। आणिक्खिवन्ति साधु य रायाणो देवयाणि य ।। अर्थात - क्रोधाविष्ट व्यक्ति की आँखे मूंद जाती हैं और उसके परिणाम स्वरूप वह अपनी माता को ही केवल नहीं देख पाता वरन गुरु, राजा और देवता को भी उनके सही रूप में न देखकर उनका अनादर कर बैठता है। क्रोध एक तूफान के समान आता ॐ और सर्वप्रथम विवेक की ज्योति बुझा देता है। विवेक के अभाव में वह क्रोधी को तो जलाता ही है साथ ही उसके कटुवचनों की चिनगारियों जिस किसी पर भी पड़ती हैं वह भी जलने लगता है। तात्पर्य यह है कि क्रोध क्रोधी को तथा वध के पात्र, दोनों को ही उत्तप्त करता है। इसलिए महापुरुष और मुमुक्षु प्राणी इससे कोनों दूर रहने का प्रयत्न करते हैं। कहा जाता है कि सुकरात की जानी बड़ी कर्कशा थी। एकबार क्रोधावेश में उसने सुकरात का कोट फाड़ डाला। किन्तु वे पूर्ववत् शान्त रहे और मुस्कराने लगे, उसी समय उनका एक मित्र, जो उनसे मिलने आया था, बोला - "आपने
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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