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आनन्द प्रवचन : भाग १
चार कोस का मांडला, वे वाणी का धोरा।
भारी कर्मा जीवड़ा, उभी रह गया कोरा।। तीर्थकर प्रभु की धर्मसभा चार-मर कोस तक होती है। हमारे जीव ने अवतारी पुरूष, तीर्थंकर भगवान की वाणी भी सुनी किन्तु उसे आचरण में नहीं उतारा अत: कोरे ही रह गए। पल्ले कुछ ही नहीं पड़ा। पर अब ऐसा नहीं करना है। शास्त्र-श्रवण और सदुपदेशों को जीवन में उतारकर उत्तरोत्तर आत्मा को निर्मल
और उन्नत बनाते जाना है तभी हमारा मानव जीवन सार्थक बन सकेगा। क्योंकि ऐसा जन्म बार-बार नहीं मिलता।