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कषाय - विजय
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कषाय - विजय
धर्म प्रेमी बंधुओं! माताओं एवं बहनों!
अनादिकाल से मानव के मन में अपने अभ्युदय की अमर आकांक्षा रही है। किन्तु दुःख है कि कोटि प्रयत्न करने पर भी यह पूर्ण नहीं हो पाई। क्यों नहीं हो पाई? और उसके मूल मे बाधव : कारण कौन-कौन से हैं? यही आज हमें जानना है, और आत्मा को अवनति की ओर अग्रसर करनेवाले उन घातक कारणों को समूल नष्ट करने का प्रयास प्रारंभ करना है।
आत्मा को स्वभाव दशा से विभाग दशा में ले जाने वाले तथा जन्म-मरण की कठोर श्रृंखलाओं में जकड़नेवाले चार वषाय विजय हैं। क्रोध, मान, माया एवं लोभ। ये ही चतुष्काय आत्मा के सदगुणों का नाश करते हैं तथा उसे ऊर्ध्वगामी होने के बजाय अधोगामी बना देते हैं। कहा भी है -
कोहो पीई पणासेड़, माणो विणरनासणो।
माया मित्ताणि नासेड़, लोभो सकविणासणो॥
अर्थात् क्रोध आत्मा के प्रीति गुण का नाश करता है, मान विनय गुण का, माया का और लोभ उसकी समस्त विशेषताओं को नष्ट कर देता है।
इस प्रकार हमारी आत्मा जो "जीवराज' है सत्-चित्-आनन्दमय है, और निर्विकार और निष्कलंक है तथा अनन्त प्रक्तिशालिनी है, इन कषायों के फेर में पड़कर अपनी दिव्यता को खो बैठती है। 5था कर्मों के आवरणों से वेष्टित होकर जन्म-जन्मातरों तक नाना योनियोंमें परिभ्रमण करती रहती है।
कर्मों और कषायों के वश होकरः प्राणी नाना,
कार्यों को धारण करता है तजता है जग जाना।
कवि का कथन यथार्थ है। अष्टर्म आत्मा के शत्रु हैं और वे ही इसे गतियों में चक्कर खिलाया है। ठीक इसी प्रकार मदारी अपनी इच्छानुसार बन्दर को नचाया करता है। फिर भी अनेक व्याक्ते कर्मों के फल में शंका करते हुए कहते हैं - संसार में प्रायः यही देखा जाता है कि हिंसक, अत्याचारी, अनाचारी, और अनेक प्रकार के कुकर्म करने वाले व्यक्ति तो सुख-पूर्वक जीवन बिताते हैं और ईमानदार, धर्मात्मा, सदाचारी तथा परोपकारी पुरुष अपना संपूर्ण जीवन अभाव