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• नही ऐसो जन्म बारम्बर
[५०] पड़ता है :
ज्ञानं नाधिगतं कुकर्मदहनं दत्तं न दां वरं, नो लेभे गुणगौरवं गुरुजनादाषिः प्रमादे मुदम् । संतापत्रयवारणोऽमितगुणो धर्मो न पत्तस्तथा,
हाहा मुग्धघिया मया हि भगवन् ! गेघीकृतं मानुषम्॥ हे भगवन्! इस संसार में चिन्तामणि रत्न के समान मानव जीवन को प्राप्त करके भी मैंने कुकर्मों को नाश करने के लिए सम्यक ज्ञान प्राप्त नहीं किया, सदगुरु की सेवा करके उनका आन्तरिक आशीर्वाद रूपी मिष्ट-प्रसाद नहीं पाया तथा त्रय तापों का नाश करने वाला और अनेकानेक उत्तम गुणों वाला पवित्र धर्म भी धारण नहीं किया, अत: निश्चय ही प्रभो! मैंने इस अमूल्य जन्म को निष्फल खो दिया
इसलिये बंधुओ! हमें अपने मानव जीवन को सार्थक करना है। संसार में आए हैं तो कुछ करके जाना है। गुणों का उपार्जन करना है। गुनाहों का नहीं। चाहते तो सभी यही है कि हम गुणों का उपार्जन करें, किन्तु इकट्टे हो जाते हैं गुनाह। इसका कारण यही है कि चाहते हुए भी हमारा अपने मन पर संयम नहीं रहता। हममें समता और सहिष्णुता के भाव नहीं पनप पाते। अहंकार का विषधर प्रतिपल अपना फन फैलाए खड़ा रहता है और समता, सद्गुण उससे भयभीत होकर आने का प्रयत्न करके भी भाग खड़े होते हैं। जब तक इराका नाश नहीं होता जीवन में समभाव का उदय नहीं हो सकता। एक मराठी कवि ने कहा है
घणा चे घाव सोसावें,
देववा देवप पावे। - घनों की चोटें खाकर ही देवत्व प्राप्त उसेता है।
पिछली बार मैंने मंदिर में स्थापित मूर्ति और खम्भे का उदाहरण देकर यही बात समझाई थी। पत्थर ने घनों की तथा टाँकी की चोटें खाई, तब उसमें आकृति आई। आकृति आने पर मूर्ति बनी और मूर्ति बनने पर वह वन्दनीय बनी। पत्थर की पूजा कोई नहीं करता, उसको अनेक कष्ट व चोटें सहने पर ही वंदन किया जाता है। और देवता माना जाता है।
___ हमें भी देवत्व प्राप्त करने के लिए गुरु की ताड़ना और आक्रोश सहन करना पड़ेगा। अभिमान को त्यागकर नम्रता एवं विनय पूर्वक सद्उपदेशों को हृदयंगम करना होगा। केवल श्रवण-मात्र से ही आतमा को लाभ नहीं होता। लाभ होता है उपदेशों को आचरण में लाने से। अन्यथा तो आम्के सुनने में आया ही होगा :