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________________ • नहीं एसो जन्म बारम्बर [४] कष्ट उन्हें भी होता है।" बालकों पर पादरी की भावना के प्रस्कूिल प्रतिक्रिया हुई। वे बोले -- "पिताजी! यह तो बड़ी अच्छी बात है, हमें भी मांस नहीं खाना चाहिए।" "बेटा! यह तो उसके धर्म की बात है, हमारे धर्म की नहीं।" पादरी ने उपेक्षा से कहा। किन्तु बचों के मन को यह बात सुनकर संतोष नहीं हुआ। उनके मन में यही भावना उठी कि, "कई अच्छी बात अगर किसी भी धर्म में हो तो क्यो नहीं मानना चाहिए?" गाँधीजी प्रति रविवार को आते। पादरी के साथ धार्मिक चर्चाएं चलती और बच्चे उन्हें सुनते। गाँधीजी की सादगी, करुणा की भावना, मधुर और शांत स्वभाव तथा उनके अनेकानेक अन्य सदगण पादरी के बालकों को बहुत अच्छे लगे तथा वे उनकी ओर आकर्षित होने लगे। अंत में उन्होंने एक दिन कह दिया - "पिताजी ! गाँधीजी का धर्म बहुत अच्छा है। अब हम कभी भी माँस नहीं खाएंगे। पुत्रों की बात सुनकर पादरी परेशान हो गया। सोचने लगा - "मैं गाँधी को ईसाई बनाना चाहता था, पर मेरे लड़के ही हिन्दू बनने जा रहे हैं।" अगले रविवार को जब गाँधीजी धाए तो पादरी ने उनसे कह दिया - मिस्टर गाँधी! मैं हिंदुस्तान के कल्याण के लिये तुम्हें ईसाई बनाना चाहता था पर तुम मेरे पुत्रों पर धावा बोल रहे हो, ह मुझे सह्य नहीं हो सकता। मैं आज से आपको दिया हुआ निमंत्रण वापिस लेता हूँ।" बंधुओ, इस उदाहरण से आप समझ गए होंगे कि मनुष्य को श्रेष्ठता प्रदान करने वाले उसके सद्गुण और सद्व्यवहार ही होते हैं। संसार सदगुणों की सौरभ से आकर्षित होता है जात और कुल की पूछताछ नहीं करता। . श्लोक की अगली पंक्ति में कहा से है कि केवड़े के पत्तों में जो सबसे ऊपर रहता है और सबसे बड़ा भी होता है सुगंध कम होती है। उससे अधिक दूसरे में, और इसी प्रकार क्रमश: पत्ते छ. निकलते चले जाते हैं किन्तु सुगन्ध अधिक मात्रा में बढ़ती जाती है। अत: बताइये, बड़े पत्ते को अधिक महत्त्व दिया जाएगा या छोटे पत्ते को? संस्कृत के वारवेने तो छोटे पत्ते को ही यह गौरव प्रदान किया है। अगर आपको भी इसकी सत्यता जाननी है, स्वयं अपने अनुभव से जान सकते हैं। हमें तो उसे स्पर्श ही नहीं कसा है। अमर जीवन जिस प्रकार उद्यान में खिले हुए फूलों की महक छिपाए नहीं छिपती, उसी प्रकार इस पृथ्वी पर अवतरित महापुरुषों 55 महान गुणों की महक भी ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो जाती है तथा देवलोक के इन्द्र व सम्यक्दृष्टि देव उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर उठते हैं। यद्यापि मिथ्यादृष्टि देवता क्रोध और ईर्ष्या के कारण अनेक बार मृत्यु लोक में आते हैं तथा नाना प्रकार के कष्ट देकर महापुरुषों को अपने सत्य, शील, साधना और भक्ति से विचलित करने का प्रयत्न करते हैं। मरणान्तक
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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