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भीतर के परिग्रह का त्याग कर दिया है, मोह पर विजय जो भोगों से विरक्त होकर अपनी संयम साधना में लगे हुए हैं। ऐसे कहलाते हैं और उनकी संगति में आने वाले प्राण सत्पथ प्राप्त करते हैं।
आनन्द प्रवचन भाग १ प्राप्त करली है और संत ही तरण तारण
सत्संगति दुर्लभ संसारा
मानव अगर संतों के समागम में रहे तो अपने सुन्दर जीवन का निर्माण कर सकता है। सत्संगति करने से नीच से नीच व्यक्ति भी महान बन जाता है। नित्य छ: प्राणियों का वध करने वाला अर्जुनमाली भगवान् महावीर की संगति से सुधर गया। लोगों की अंगलियों काट-काटकर उनकी मालाएँ पहनने वाले महापापी अंगुलिमाल डाकू ने भी गौतम बुद्ध की संगति से अपने दुर्गुणों का त्याग कर दिया।
ऐसा होता है सत्संग का प्रभाव सत्संग से ही मानव का मानसिक एवं बौद्धिक विकास होता है तथा हृदय की मर्जिनता, अस्थिरता एवं अज्ञता मिटती है। संतों के द्वारा बताए गये मार्ग पर चलकर ही मानव अपने शुद्ध आत्म-रूप का साक्षात्कार कर सकता है। सत्संगति का महत्व नीतिशतक में भी बड़ा उत्तम बताया गया है -
जायं धियो हरति सिञ्चति वाचि 'सत्यं, मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति ।
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीफम् सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥
भर्तृहरि
सत्संगति बुद्धि की जड़ता नही करती है, वाणी को सत्य से सींचती है, पाप मिटाती है, चित्त को प्रसन्नता प्राप्त कराती है, तथा संसार में यश फैलाती है। संक्षेप में सत्संगति पुरुषों के लिए क्या नहीं करती ?
इसलिए प्रत्येक आत्मोन्नति के इच्छुक प्राणी को संतों का समागम करना चाहिए। उनके उपदेश और जीवनचर्या से श्रीक्षा लेनी चाहिए। संतों के सम्पर्क में आने से ही मालूम पड़ता है कि वे कितने धैर्य और साहस के साथ क्षमा, दया, सत्य तथा सदाचारादि शस्त्रों से सुसज्जित होकर कर्मरूपी शत्रुओं के साथ युद्ध करते हैं। और किस प्रकार अपनी आध्यात्मिक सपना में आगे बढ़ते हैं। साधना के मार्ग में अगर उन्हें मारणान्तिक उपसर्ग भी झेलने पड़े, तो सहर्ष झेलते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे आत्म-कल्याण और विश्वकल्याण में कोई अन्तर नहीं समझते। आत्मकल्याण उन्हें जितना प्रिय है, पर कल्याण भी उतना ही प्रिय है। इसलिए वे स्व और पर के कल्याण में तत्पर रहते हैं। तथा "तिष्याणं तारयाणं" कहलाते हैं।