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तिण्णाणं तारयाणं
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अगर कोई वन्दना करता है तो संत अभिमान से फूल न जाये और वंदन करे तो कुपित न हो। यह संतों का व्यवहार है। वृक्ष जिस प्रकार पत्थर फैंकने वाले को भी फल प्रदान करता है, उसी प्रकार किसी के भी कटु-वचनों को संत समभाव से सहन करें।
इस संसार में महापुरुषों को अनेक विपत्तियाँ सहनी पड़ती हैं। संकटों की कसौटियों पर कसे बिना ही वे महान् न बन पाते हैं, तथा जितने महान् होते जाते हैं उतने ही नम्र स्था सहिष्णु हो जाते हैं। परोपकार उनका सबसे बड़ा गुण होता है। मित्र और शत्रु सभी का वे समान-भाव से उपकार करने के लिए तैयार रहते हैं। कहा भी है -
महात्मानोऽनुगृह्णन्ति भजमामन् रिपूनपि। सपत्नी: प्रापयन्त्यब्धि सिन्ध्वो नगनिम्नगाः।
-महाकवि माघ महान् पुरुष तो शरणागत शत्रुओं पर भी अनुग्रह करते हैं। बड़ी नदियाँ सपत्नी (छोटी-मोटी) पहाड़ी नदियों को भी समुद्र तक (अपने पति तक) स्वयं पहुँचाती हैं।
कहने का अभिप्राय यही है कि महापुरुष और संत व्यक्ति किसी से भी वैर भाव नहीं रखते, अपना बुरा करने वालों का भी मला करते हैं तथा सत्य, त्याग, दया, परोपकार, करुणा और सहिष्णुता का कभी त्याग नहीं करते। ऐसे संत ही संसार के अज्ञानी प्राणियों को सन्मार्ग बन्न सकते हैं। आज का संसार घोर अनैतिकता, स्वार्थपरता एवं पाशविकता की स्थिति में से गुजर रहा है। ऐसे कठिन समय में इसी प्रकार के निस्वार्थी, निर्लोभी, परोपकारी, और संयमी मार्गदर्शकों की आवश्यकता है। अन्यथा केवल नामधारी संत कालाने से क्या लाभ? किसी गुजराती कवि ने ठीक ही कहा है -
यूँ थाय मस्तक मूंडदाथी, चूंटवा केश ने? नहि काम क्रोध तजाय तो यूँ थाम धरवे वेश ने? © थाय! कपड़ा पेरवा थी विविधारे साधू तणां, माया तणा परदाविषे घाये घड़े अवला गणा। खं अरे! साधुपएँ संसार मां छू लाम नु?
नहिं भवभ्रमण ने भांगशे साधुपुर्ण र नाम नु। पद्य का यही भावार्थ है कि केवल झंत, गेरुए या अन्य प्रकार के वस्त्र पहनकर साधु दिखाई देने से ही मनुष्य साधु नहीं कहला सकता। वस्त्र, मालाएँ, तिलक या छापे ही साधुत्व के चिह्न नहीं होते। साधु वे ही कहलाते हैं, जिन्होंने क्रोध, मान, माया, लोम एवं अहंकार का त्यार। कर दिया है, जिन्होंने बाहर और