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________________ • तित्राणं तारियाणं [३०] आपके घर पर संत या साध्वी याहार-पानी के निमित्त आएँ और रुग्णावस्था के कारण एकाएक उनकी स्थिति अधिक बिगड़ जाय तो वे आपकी आज्ञा से आपके घर पर बैठ सकते हैं। इसी प्रकार अधिक तपस्या से कृश हुए साधु और वृद्धावस्था के कारण कमजोर साधु-साध्वी भी चल्ली लायक स्थिति न होने के कारण आप गृहस्थों के घर पर ठहर सकते हैं। उसमें दोष नहीं है। मोह विजेता क्यों विचरण करते हैं? अभी-अभी मैंने आपको साधु और साध्वियों के लिये बताया कि विशेष कारण होने पर तो हम ठहर सकते हैं किन्तु वैसा न होने पर विचरण करना चाहिए ऐसा हमारे लिये नियम है। कारण पह में बताया ही गया है साधु तो पता भल्ला, दाग न लाये कोय। रमते हुए साधु को कोई दम नहीं लगता। किसी प्रकार की कुभावनाएँ उसके हृदय में घर नहीं कर पातीं। किन्तु जिन्होंने अपने मोहनीय कर्म का ही क्षय कर दिया है, और किसी प्रकार 5 पाप-कर्म के बंधन का जिनके लिए भय नही है, वे क्यों विचरते हैं? उनका एक ही उद्देश्य होता है - भव्य जीवों का उध्दार करना। जो मुमुक्षु प्राणी हैं, सतार मुक्त होना चाहते हैं उनका उद्धार हो, यही कामना निरंतर उनके हृदय में बनी रहती है। और इसलिये वे विचरण करते हैं कि संसार का कल्याण हो - शिवमस्तु सर्वजगतः परीत निरता भवंतु भूतगणाः। दोषा: प्रयांतु नाशं, सर्वा सुखीभवतु लोकः।। - समस्त जगत का कल्याण हो, सब प्राणी परोपकार में लग जायें, समस्त दोषों का नाश हो तथा सर्वत्र सुख का प्रसाफ हो। अगर सब प्राणियों के हृदयों में ऐसी भावना हो जाय तो फिर कहीं कष्ट का नामोनिशान ही न रहे। संसारी जोव अपनी स्वार्थ-भावना के कारण ही कष्ट पाते हैं, अपने दोषों और पापों के कारण ही दु:खी रहते हैं। अगर अपनी स्वार्थ सिध्दि की भावना को छोड़कर ये धौरों का हित करने में निमग्न हो जाय तो फिर कष्ट किस बात का रहे? महापुरुषों की भावना ऐसी ही होती है। वे अपने दुख से दुखी नहीं होते, पर दुख से द्रवित होते हैं। महापुरूष श्री अमीऋषि जी महाराज ऐसी ही भावनाओं के वशीभूत होकर संसार में रुलते हुए प्राणी को सावधान करने के लिये कहते हैं : इण मोह जाल माहीं बीती है अनन्त काल, नाना जोरि माह कष्ट सहा है अपार रे। क्रोध मान माया लोभ राग-देव वश जीव, पायो दुःख अन्त न छोड़त गंवार रे।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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