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________________ • [२९] आनन्द प्रवचन भाग १ है। धर्मशाला नहीं तो क्या है ? एक बार एक फकीर घूमता धामता केसी महल में पहुँच गया और एक शानदार कमरे में घुसकर आराम करने लगा। कुछ समय पश्चात् बादशाह आया और अजनबी फकीर को देखकर आग बबूला हो गया। क्रोधित होकर पूछ बैठा- तुम किसकी इजाजत लेकर यहाँ आए at?" फकीर मस्ती से बोला- 'धर्मशाला में आने के लिये भी क्या किसी की आज्ञा की आवश्यकता होती है ?" "यह मेरा महल है, धर्मशाला नहीं !" फकीर हँस पड़ा- "अच्छा, तुमसे पहले यंत्रों कौन रहता था ?" "मेरे पिता!" "और उनसे पहले ?" "उनके पिता, यह भी कोई पूछने की बात $ ?" राजा झुंझलाकर बोला। "तो भाई ! वह मकान जिसमें एक क बाद दूसरा आता है और चला जाता है वह धर्मशाला नहीं कहलाती तो और क्या कहलाती है ?" बादशाह, मूक हो गया, कुछ भी नहीं बोल रुक्का। तो बंधुओ, साधु चाहे एक स्थान पर गहरे या विचरण करता रहे, उसके लिये स्थान, मकान आदि सभी कुछ अनाकर्षक होता है। किसी वस्तु और किसी भी प्राणी के लिये उसके हृदय में मोह नहीं होता। वर्षाकाल के अतिरिक्त वह विचरण करता है। विशेष आवश्यकता न होने पर कहीं भी अधिक नहीं ठहरता। विशेष शब्द मैंने इसलिये कहा है कि अगर साधु के शरीर में चलने की शक्ति नहीं है, तो भगवान का आदेश है कि "ठहर जाओ, बैह जाओ !" यद्यपि साधु को गृहस्थ के घर ठहरने का, बैठने का, और बातें करने का अधिकार नहीं है। आहार पानी लेने जाना और लेते ही लौट आने का विधान है। किन्तु शारीरिक शक्ति न होने पर गृहस्थ की आज्ञा लेकर बैठने की भी आज्ञा है। 'दशवैकालिक सूत्र' में कहा गया है तिमन्नयरागस्स, निसिज्जा जस्स कप्पा है। जराए अभिभूअस्स, वाहिअस्स तवस्सिर्णा ।। वृद्ध, रोगी एवं तपस्वी इन तीन प्रका के साधुओं को बैठना कल्पता
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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