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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १ स्नेह है और जब तक यह दूर नहीं होगा, गौतम केवलज्ञान प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसीलिये वे कहते हैं- "वत्स गौतम! तुमनरा और मेरा स्नेह बहुत काल से चला आ रहा है और इसी प्रकार बड़े और छोटे रहकर हम पूर्व जन्मों में भी साथ रहे हैं। किन्तु अब इस मोह को नष्ट करना अनिवार्य है क्योंकि तुम्हारे 'केवलज्ञान' की प्राप्ति में यह एक दीवार के समान बाधा उपस्थित कर रहा है। तुम मेरे अत्यन्त प्रिय और विनयवान शिष्य हो तथा तुमने मेरे प्रति अपने स्नेह को पूर्णरूप से निभाया है, पर अब इसे त्यागो और केवलज्ञान के अधिकारी बनो।" अन्त में ऐसा ही हुआ, ज्योंही गौतम स्वामी ने भगवान के प्रति अनेक जन्मों से चले आ रहे अपने मोह को नष्ट किया, त्योंही उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। कहने का अभिप्राय यही है कि मह-कर्म सबसे जबर्दस्त है और अगर इसका नाश हो जाय तो इसके साथ रहने वाला ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अन्तराय कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। यही चारों घातिया कर्म हैं जिन्हें नष्ट करना मुक्ति-प्राप्ति के लिये अनिवार्य है। साधु तो रमता भला! मेरा विषय यह चल रहा था कि स्वतारी पुरूष और सन्त-महात्मा अपने उद्धार का प्रयल करते हैं, साथ ही औरों की भी आकांक्षा रखते हैं। इसीलिये स्वयं तीर्थकर भगवान, जो समस्त कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और फिर उन्हें किसी भी प्रकार के पार लगने का भय नहीं होता, वे भी विचरण करते हैं। अगर वे एक ही स्थान पर ठहरें तो उन्हें कौनसा पाप लगने वाला है? और उनका क्या नुकसान होने काला है? यह जानकर भी दे यत्र-तत्र विचरते हैं, वह क्यों? सिर्फ इसलिये कि वे संसार के अन्य प्राणियों को संसार-सागर से पार कर सकें, जन्म-मरण के दुखों से मुक्त कर सकें। ऐसे पर-दुख-भंजन प्राणियों के लिये ही कहा जाता है: ते गुरू मेरे मन बसो, जे भव-काधि जहाज । आप तिरे पर तारहीं, ऐसे श्री ऋोषराज।। क्या कहता है भक्त? यही कि इस भव-सागर में जहाज के समान बन कर जो गुरू स्वयं तर जाते हैं तथा दूसरों को भी तार देते हैं, वे मेरे मन में निवास करें। पर एक स्थान पर ठहरकर क्या ऐसा कया जा सकता है? नहीं, इसीलिये हमारे लिये यह नियम बना है कि 'चातुर्मास काल के अलावा सदा विचरण करते रहो, एक स्थान पर मत ठहरो! एक स्थान पर रहने से राग-द्वेष बढ़ जाएगा तथा अधिक प्राणियों के सम्पर्क में नहीं आ सकोर! तुम्हारा दायरा छोटा हो जाएगा जबकि साधु सारे संसार का है। विश्व के ओधेक से अधिक जितने भी प्राणियों
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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