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________________ [२६] मेरे अनुभव जब मैं स्कूल में पढ़ता था। उस समय हर आठवें दिन लड़कों के हाथ से लिखे हुए अक्षरों की परीक्षा होती थी। जिसके अक्षर, अर्थात् जिसके हाथ की लिखावट सुन्दर होती उसे खूब नम्बर मिलते थे और जिनकी सुन्दर नहीं होती उसे कम मिलते। · तित्राणं तारियाणं पर कम नम्बर प्राप्त करने वाले नड़के क्रोध और ईर्ष्या से भर जाते तथा किसी प्रकार अपनी पराजय का बदला लेने का प्रयत्न करते थे। वे कभी-कभी सुन्दर अक्षर लिखने वाले लड़के की कोण पर स्याही उँडेल देते या कॉपी फाड़ डालते। इससे क्या होता ? क्या ऐसा करने से नम्बर अधिक मिल सकते थे ? नहीं। लाभ कुछ नहीं होता था केवल ईर्ष्या-द्वेष की मात्रा ही बढ़ती थी और कर्म-बन्धन होता था। मोहनीय कर्म के परिणामस्वरूप पैदा होने वाली राग-द्वेषादि की भावनाएँ बाल्यकाल में छोटे दायरे में रहती हैं किन्तु बड़े होने पर वे ही भावनाएँ अपना दायरा बहुत बड़ा बना लेती हैं। मानव अपने कुटुम्बिांडों के प्रति अत्यधिक राग भाव रखता है तथा उनके मोह-वश नाना प्रकार के अनुचित कर्म करके अपनी आत्मा को भारी बनाता है। इसलिये किसी कवि ने मनुष्य को जिक्कारते हुए कहा है :- 1 कर जिनके हित पाप तू, चला नरक के द्वार । देख भोगते स्वर्ग सुख, वे ही अपरम्पार ॥ आगे चेतावनी भी दी है : घिरे रहो परिवार से, पर भूलो न विवेक । रहा कभी में एक था, अन्त एफ का एक ॥ कहने का अभिप्राय यही है कि मोह-कर्म अत्यन्त बलशाली है, इसके वश में हुआ प्राणी कोटि प्रयत्न करके तथा कितना भी पूजा-पाठ, जप-तप और घोर तपस्या करके भी आत्मा को कर्म मुक्त कहीं कर सकता। भगवान महावीर के प्रधान शिष्य गौतम जो कि चौदह पूर्व के पानी थे अर्थात् अगाध ज्ञान के धारक और समस्त सद्गुणों से युक्त थे। केवलज्ञान जिनके मस्तक पर मँडरा रहा था, वे भी जब तक भगवान महावीर के प्रति रहे तक उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। शब्दों में बोध दिया है। कहा : अपने मोह को दूर नहीं कर सके तब अन्त में स्वयं भगवान ने उन्हें बड़े मार्मिक धारे ने म्हारे गोयमा रे! घणा बतल की प्रीती। आगे ही आप भेला रह्या वली लोड़ बड़ाई नी रीत जी । मोह कर्म ने लीजो थे जीत जी. केवल आड़ी याही ज भीत जी। कितने स्नेह-पूर्ण शब्द हैं? प्रभु जानते थे कि गौतम का मेरे प्रति असीम
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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