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आनन्द प्रवचन : भाग १
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( तिण्णाणं तारयाणं
धर्मप्रेमी बन्धुओं! माताओं और बहिनों!
"रायप्रसेणी सूत्र' में सूर्याभ देका सिध्द भगवान की स्तुति करने के पश्चात् महावीर प्रभु की स्तुति कर से हैं। अवतारी पुरुष अपनी आत्मा का उद्धार तो करते ही हैं, साथ ही उनके आश्रय में जो भी आएँ, अर्थात् जो भी उनका सहारा ग्रहण करें, जनका भी उद्धार करते हैं। इसलिये इन्हें 'तिण्णाणं तारयाणं' कहा जाता है।
अगर उनके मन में केवल अपनी को मुक्ति की कामना रहती, औरों के उध्दार का खयाल नहीं होता तो वे केवल इतान प्राप्त करने के पश्चात् भी विचरण क्यों करते? केवलज्ञान प्राप्त होना, अर्थात् माहनीय कर्म का क्षय हो जाना। इसके क्षय हो जाने के पश्चात् नये कर्म नहीं बँधो। क्योंकि यही सब कर्मों का राजा है। अन्य समस्त कर्मों की कुल मिलाकर जिलमी शक्ति होती है, उससे कहीं अधिक इस मोहनीय कर्म की शक्ति मानी जाती है।
कर्मों का सरताज अभी-अभी मैंने बताया है कि मोहनीष कर्म अन्य समस्त कर्मों से अधिक शक्तिशाली है। इसके वश में पड़ा हुआ प्राणी अपने हिताहित का ज्ञान नहीं रख पाता तथा अनन्तको का बन्धन करके जन्म-मरण करता रहता है। पंडित मुनि श्री रायचंद्र जी महाराज ने इसलिये कहा है :
जीवा तोहे मोह रूलावे हो।
एकादश गुणस्थान से पहला में नावे हो। जीवा। कितना जबर्दस्त है यह मोहनीय करें। जोकि ग्यारहवें गुणस्थान में पहुंची हुई आत्मा को भी पुन: प्रथम गुणस्थान में ला पटकता है। इसके साथी हैं - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं अन्तरायकर्म। न ही सब मिलकर मन, वचन और काय-तीनों योगों को बिगाड़ते हैं। मोहनीय कर ही राग-द्वेष को बढ़ाता है। इसका शिकार व्यक्ति दूसरों की बढ़ती को देखकर बया करता है, दूसरों को ज्ञान वृद्धि करते देखकर द्वेष से भर जाता है।