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________________ के इन स्वरों में [ २४ ] यह निरन्तर चलनी चाहिये। चाहे जिस स्थान पर और चाहे जिस समय ना कर सकता है। इसमें न सा खर्च होता है और न शारीरिक बल यक होता है। इतना अवश्य कि प्रार्थना में बोली जाने वाली बातों किया जाय। इसमें कहे गए शब्दों के अनुसार आचरण किया जाय। तभी ना करना सार्थक हो सकता है। हम भगवान से कहते हैं : "हृद्वर्त्तिनि त्वयि विभो ! शिक्षिनीभवन्ति - हे भगवन्! बन्धन भी क्षणमात्र में ढीले जन्तोः क्षणेन निबिज्ञः अपि कर्मबन्धाः । " - सिद्धसेन दिवाकर आपके हृदय में विराजने पर प्राणियों के सघन कर्मों के पड़ जाते हैं। हम भगवान को अपने हृदय में विराजने का निमन्त्रण तो दे देते हैं, पर अपने हृदय को उनके योग्य नहीं बनाते। भगवान का मन्दिर कितना शुध्द और पवित्र होना चाहिए ? बिना हृदय की शुरूष के भगवान हमारी प्रार्थना कैसे स्वीकार करेंगे और किस प्रकार निबिड़ कर्म- बन्धनों से छुटकारा दिलाने जैसा महत् कार्य सम्पन्न करेंगे ? इसलिए बन्धुओं! प्रार्थना के स्व केवल जबान से ही मत निकालो, उनके पीछे अपने अंतर्मानस को भी लगा दो। तभी आत्मा का कल्याण हो सकेगा। ...
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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