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________________ प्रार्थना के इन स्वरों में [२०] अन्दर बैठा हुआ व्यक्ति तुरन्त बाहर आया और बोला - "भाई, तुस्त अन्दर आ जाओ! अपने गीले वस्त्र खोलकर मेरे सूखे पहन लो और जब तक वर्षा रूक न जाय यहीं बैठो। यद्यपि झोपड़ी छोटी है और पैर पसारकर बैठने तथा सोने के लायक नहीं है। किन्तु म दोनों इसी में सिकुड़-सिकुड़ा कर बैठ जाएँगे और वर्षा का यह कठिन समय व्यतीत करेंगे।" प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा ही होता चाहिए। अगर उस व्यक्ति के हृदय में सहानुभूति, करुणा और परोपकार की भावना न होती तो स्वयं स्थान की तंगी से कष्ट उठाकर आगन्तुक को स्थान न देता। कह देता - "जगह नहीं है।' पर उपकारी व्यक्ति ऐसा नहीं करता। दीन-दुशी की सहायता कला अभावग्रस्त के अभाव की पूर्ति करना वह अपना कर्तव्य समझत्रा है। और तभी वह पुण्य का भागी बनता है। 'वेदव्यास जी ने कहा भी है - 'परोपकारः पुण्यात पापाय पर-पीडन'। पर-उपकार जैसा कोई पुण्य नहीं है और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने जैसा कोई पाप नहीं है। इसीलिए प्रार्थना में कहा गया है कि क्रोध, गान, माया, लोभादि का नाश हो और मेरे मन में उपकार की भावना का उदय हो तभी चित्त में शान्ति रह सकती है तथा विकलता नष्ट हो सकी है। दिल में अशान्ति होने पर व्याकुलता और केश पीछा नहीं छोड़ते। पर इन सबका कारण कुबुध्दि है। जब तक हृदय में कबुध्दि बनी रहती है मनुष्य शुभ कर्म में प्रवत्त नहीं हो सकता। और अशभ कर्मों का परिणाम दुःख और व्याकुलता के सिवाय और हो ही क्या सकता है। इसलिए जिस प्राणी को अखंड शान्ति की आकांक्षा है उसे इन्द्रिय जनित वासनाओं से बचना चाहिए। संत तुकाराम जी कहते है। पापाची वासना को माझ्या डोला। त्याहूनी आँधलारा मीच ॥१॥ - हे भगवन! मेरी आँखो में कभी भी पाप बुध्दि न आये। अगर पाप-बुध्दि देनी है तो मुझे अंधा बना देना। अंधा ही रहने दो! कवि के उद्गार कितने भाव भरे हैं? मनुष्य की आँखें उसके चरित्र, व्यक्तित्व और अन्त:प्रवृत्ति का दर्पण है। जो बाा वाणी से प्रकट नहीं होती वह बात, आँखें आसानी से बोल देती हैं। बड़े-बड़े ऋषि महर्षि भी अपनी आँखों को वश में नहीं रख पाने के कारण अध:पतन के मागे की ओर प्रवृत्त होते देखे गए हैं। विश्वामित्र कैसे घोर तपस्वी थे, पर स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने उनके तप को भी भंग कर दिया था। यह क्यों हुआ? चक्षु-इन्द्रिय को वश में नहीं रख पाने के कारण।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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