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________________ आनन्द प्रवचन : भाग १ इसी तरह रोहिणेय चोर ने भी अपने पिता की कुशिक्षाओं को दृढ़ता से । पकड़ लिया। चोरी करना भी तो खारा पानी पीने के समान ही था पर पिता की आज्ञा होने के कारण उसने चोरी करना नहीं छोड़ा और पक्का चोर बन गया। एक बार भगवान महावीर प्रभु उस नगर में पधारे तथा नगर के बाहर बगीचे में ठहरे। प्रतिदिन प्रात:काल उनका धर्मोपदेश होता था। हजारों व्यक्ति उसे सुनने के लिये आते थे। संयोगवश रोहिणेय चोर एक दिन उधर से गुजरा। उसे मालूम था कि यहाँ भगवान महावीर का उपदेश हो रहा है। अत: उसने अपने कानों में अंगुलियों डाल ली कि कहीं उपदेश के शब्द कानों में पड़ गए तो पिता की आज्ञा का उल्लंघन हो जाएगा। पर होनहार बलवान होती है, जल्दी-जल्दी चलने के कारण रोहिणेय के पैर में काँटा लग गया। अब क्या करे? का नहीं निकाले तो आगे बढ़ा नहीं जाता और कांटा निकालने के लिये कानों में से 1 अंगुलियाँ निकालनी पड़ती हैं। बेचारा बड़े धर्म संकट में पड़ गया। पर पिता की आज्ञा से भी शरीर का सुख तो मूल्यवान होता ही है, उसने कानों में से ओलियाँ निकाली और काँटा निकालने का प्रयत्न किया। इसी बीच भगवान के उपदेश की तीन बातें उसके कानों में पड़ती गई कि - 'देवता के चरण जमीन पर नहीं लगते। उनकी आँखे नहीं टिमटिमाती और उनकी छाया जमीन पर नहीं पड़ती।' रोहिणेय ने सोचा - मैंने जानबूझ की तो पिता की आज्ञा का लोप किया नही है। मजबूरी से तीन बातें सुननी पड़ गई तो उन्हें याद ही करलूँ। क्या हर्ज है?' ऐसा विचार कर उसने देवता के तीनों लक्षण अच्छी तरह याद कर लिए। इधर राजा श्रेणिक ने नगर में चोरियों बहुत होती देखकर अपने बुध्दिमान मन्त्री अभयकुमार को चोरों को पकड़ने का आदेश दिया। अभयकुमार ने अपने गुप्तचरों से यह जाना कि चोर चोरी करके नगर से बाहर अमुक देवी के मन्दिर में इकट्ठे होते हैं और चोरी का माल बाँटते हैं। इस जानकारी के प्राप्त होने पर उन्होंने स्वयं ही स्त्री का वेश बनाया और देवी के मन्दिर में छिपकर बैठ गए। अर्धरा1ि व्यतीत होने पर प्रतिदिन की तरह चोर आए और बोले - "देवी माता, आज आपकी तुपा से खूब माल मिला है।" । चोरों की बात सुनकर देवी वेश-धारी अभएकुमार बोले - "आज मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ।" चोर यह समझकर कि आज तो देवी। साक्षात् दर्शन दे रही हैं, बोल रही
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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