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है।
सर्वस्य लोचनं शास्त्रं...
हम अनेक पुरुषों को और प्रायः समस्त नारियों को कानों में कुछ न कुछ पहन कर उसकी शोभा बढ़ाते हुए देखते हैं। पर क्या कानों में हीरे के लॉंग था कर्णफूल पहन लेने से ही उनके सौंदर्य में अभिवृध्दि हो जाती है ? एक संस्कृत के विद्वान ने कहा है :
" श्रोत्रं श्रुतेनैव च कुंडलेन”
श्रोत्र यानी कान। इन कानों का होना कैसे सार्थक होता है, तथा इनकी शोभा कब बढ़ती है ? जबकि शास्त्र के वजन कानों में पहुँचे, तथा शास्त्रों की वाणी इन्हें अलंकृत करें। कानों में कुण्डल पहनने से, भुरकी और बालियाँ पहनने से इनकी शोभा नहीं बढ़ती। कान का सच। आभूषण शास्त्र श्रवण करना है इसी से इनकी शोभा बढ़ती है।
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चि से सुनते हैं। रफ कर लेते हैं,
दूसरों की निन्दा कहीं किन्तु जहाँ शास्त्र का
लोग इधर-उधर की बातें खूब हो रही हो, तो भी अपने कान उसी वाचन हो रहा हो तो आँखें बचाकर भागने की कोशिश करते हैं। उसमें उन्हें रस नहीं आता। पर ऐसा करना उनकी महान भूल है। शास्त्र को माता के समान माना गया है। आपके सुनने में या पढ़ने में 'शवचन-माता' शब्द अवश्य ही आया होगा। प्रवचन का अर्थ शास्त्रों के वचन ही होत है तो माता का दूध जिस प्रकार संसार के समस्त खाद्य पदार्थों की अपेक्षा शरी की पुष्टि के लिए उत्तम माना गया है, उसी प्रकार शास्त्र- वचन आत्मिक गुणों वे विकास और पुष्टि के लिए अन्य समस्त साधनों की अपेक्षा उत्तम होते हैं। अत: शास्त्र श्रवण करना प्रत्येक आत्मोन्नति के इच्छुक प्राणी के लिए आवश्यक है।
श्लोक में अगली बात बताई है कि अन्त:करण की शोभा शुद्ध आचरण में है। अगर मनुष्य का आचरण सुन्दर नहीं है तो उसके शरीर की तथा वस्त्रों की जो ऊपरी सुन्दरता है वह निरर्थक हैं। 'बाह्य सुन्दरता से आत्मा का तनिक भी लाभ होने वाला नहीं है। आत्मा का उत्थान केवल हृदय की पवित्रता रूप सुन्दरता से ही हो सकता है। हृदय में अगर पापों का कचरा है, और कषायों की कालिमा है तो मनुष्य कितनी भी धर्मा क्रिया करे, मंदिरों और मसजिदों में जाये अथवा तीथों में भटकता फिरे उसमें कोई लाभ नहीं होता।
यानी
मुस्लिम जाति में मक्के की हज अर्थात् - यात्रा का बड़ा भारी महत्त्व माना जाता है। किन्तु शेखसादी कहते हैं :
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"दिलबदस्त आवर के हज्जे अकवर अस्त ।
अज हजारा कावा का दिल बेहतर अस्त || "
अपने हृदय को वश में कर। क्योंकि यही एक महान् हज्ज हैं।