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________________ • [ २८७] आनन्द प्रवचन भाग १ अपनी जिह्वा को पवित्र बनाना चाहिए। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि आत्म-कल्याण के जितने भी साधन हैं, वे सब सत्य में ही निहित हैं। हमारे जैन शास्त्रों में स्पष्ट कहा है : " जे विय लोगंमि अपरिसेसा मन्तजोगा ] जवा व विज्जा य जंभकाय अत्याणिय सिक्खाओय आगमाय सव्वाणि वि ताई सच्चे पहिआई।" - प्रश्नव्याकरण, २-२४ भावार्थ है इस लोक में जितने भी मंत्र, योग, जप, विद्याएँ, जृम्भक, अर्थशास्त्र, शिक्षाएँ और आगम हैं, वे सभी अत्य पर आश्रित हैं। इन सबका मूल आधार सत्य है। - सत्य महान पराक्रमशाली और प्रचंडशक्तिमान होता है। जिस प्रकार भुवनभास्कर सूर्य के उदित होते ही तिमिर विलीन हो जाता है, उसी प्रकार सत्य के प्रकाशित होते ही असत्य अस्तित्वहीन बन जाता है। सत्य की शक्ति एक महात्मा किसी भंगी से छू गए। इस पर अत्यन्त क्रोधित होकर चिल्लाए "तू अन्धा है क्या ? देखकर नहीं चलता? अब मुझे पुनः स्नान करने के लिए नदी पर जाना पड़ेगा।" भंगी नम्रतापूर्वक बोला "भगवन्! स्नान तो मुझे भी करना पड़ेगा । " "तुझे क्यों स्नान करना पड़ेगा ?" सन्तः चकराये। "इसलिये कि क्रोध मुझ से भी अधिक अपवित्र और चांडाल के सदृश मुझे स्पर्श किया है अतः मुझे भी नहाना है। आपके अन्दर प्रवेश करके उसने होगा।" सन्त यह सुनकर बड़े शर्मिन्दा हुए और उन्होंने भंगी से क्षमा मांगी। यह सत्य की ही शक्ति थी, जिसने भंगी की जबान पर आकर भी एक संत को अपने समक्ष झुका लिया। सत्य व आराधना करने वाला व्यक्ति संसार अनादि काल से चल रही अपनी की किसी भी शक्ति से भयभीत नहीं होता तथा इस विराट यात्रा का चरम लक्ष्य मुक्ति को ! प्राप्त करता है। इसलिए प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक है कि वह अपनी जिह्वा के द्वारा सदा सत्य भाषण करे तथा सत्यालंकार से उसे अलंकृत करे। श्लोक में अगली बात यह बताई गये है कि मानव को अगर कान मिले शास्त्र -श्रण ही हमारा आज का मुख्य विषय सदुपयोग करना है और उन्हें शोभित करना हैं तो उनसे वह शास्त्र श्रवण करे। है। शास्त्र श्रवण करना ही कानों का
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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