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गुणानुराग ही मुक्ति मार्ग है
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Every man need is my superior in some way. In that I learn of him.”
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प्रत्येक मनुष्य जिससे मैं मिलता हूँ किसी न किसी रीति में मुझसे श्रेष्ठ होता है। इसलिए मैं उससे शिक्षा लेता हूँ।
गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो जिज्ञासा होती है कि एक विद्वान को ऐसा सोचने की क्या आवश्यकता है? वह स्वयं भी तो बुद्धिमान और ज्ञानवान है। उसे अन्य प्रत्येक व्यक्ति से क्या लेना है? पर नहीं, संसार में गुण अनन्त हैं और एक व्यक्ति यह समझे कि मैं अपनी तीव्र बुद्धि से पढ़-लिखकर ज्ञानी बन गया, अब मुझे और कुछ प्राप्त करने को आवश्यकता नहीं है। तो यह उसकी भूल है। प्रत्येक छोटे से छोटे व्यक्ति में भी कोई न कोई गुण अवश्य होता है।
गुणग्राही बादशाह
हजरत इब्राहीम बलख के बादशाह थे। एक बार उन्होंने एक गुलाम खरीदा और अपनी स्वाभाविक उदारतापूर्वक उससे पूछा
"तेरा नाम क्या है ?"
"जिस नाम से हुजूर मुझे पुकारें।"
"तू खायेगा क्या ?"
"जो आप खिलायें। "
"तुझे कपड़े कैसे पसन्द हैं ?"
"जो आप पहना दें।"
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"अच्छा तू काम क्या करेगा ?" -- हजरत ने फिर पूछा !
"जो आप कराएँ। "
"तू क्या चाहता है?"
"हुजूर! गुलाम की चाह क्या? जो आपकी इच्छा हो वही मेरी चाह है।"
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यह सुनते ही बादशाह तख्त से उतर पड़े और बोले "तुम मेरे उस्ताद हो। आज तुमने मुझे बता दिया कि अल्लाह की भक्ति कैसे की जानी चाहिए।"
बन्धुओ, इस उदाहरण से आप समझ गये होंगे कि गुणग्राही व्यक्ति किस प्रकार गुणों का संचय किया करते हैं। अपनी गुणग्राहकता के कारण एक बादशाह ने भी अपने खरीदे हुए गुलाम से भक्ति कैसे की जाय यह सीख लिया।
इतना ही नहीं, सचेगुणग्राही पुष तो पूर्ण निर्गुणी से भी शिक्षा लेने से