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________________ • [२७१] आनन्द प्रवचन : भाग १ दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि लोमड़ी के समान अंगूर खट्टे हैं, यह कहकर अवगुण दूर से ही चलते बने और अपने लिये उपयुक्त स्थानों पर ऐसे जा छिपे कि पुन: कभी आपके समी] आने का उन्हें साहस ही न हुआ। स्वान में भी उन्हें आपकी ओर निहारने की हिम्मत नहीं पड़ी। कुछ भी हो, निष्कर्ष यही है कि संसार के अन्य प्राणियों में गुण और अवगुण कम या अधिक मात्रा में सभी के पास होते हैं, किन्तु भगवान के पास दोषों का काम नहीं हैं। वे समस्त दोष-रहित तथा सम्पूर्ण गुण-सहित होते हैं। का गुणों के प्रति देकर उसकी सहा अपना मस्तक अलस गुणानुराग जिन व्यक्तियों का गुणों के प्रति अनुराग होता है, दे दूसरों के गुणों को देखकर प्रमुदित होते हैं। दानी पुरुष को देखकर उसकी सहायता करते हैं। तपस्वी को देखकर मन में श्रद्धा का भाव लाते हैं। पहलवान के प्रति अपना मस्तक झुकाते हैं तथा संयमी पुरुष के लिए हृदय में पूज्या भावना रखते हैं। इसी प्रकार जिस व्यक्ति में जो भी गुण होता है, उसके लिये वे महान् आदर का भाव रखते हैं। गुणानुरागी व्यक्ति सदा यही भावना रखता है :-- गुणी जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे। बने जहाँ तक उनकी सेवा-करके यह मन सुख पावे॥ होऊँ नहीं कृतघ्न कभी मैं, नाह न मेरे उर आवे। गुण-ग्रहण का भाव रहे नित 1 दृष्टि न दोषों पर जावे।। कितनी सुन्दर भावना है कि - गुणोजनों को देखकर मेरा मन खुशी से भर जाय। भले ही मुझ में गुणों का अभाव हो। त्याग और तपस्या आदि मुझसे न हो पाएँ, और धन के अभाव में दान का लाभ भी न उठा सकूँ। पर मैं चाहता हूँ कि गुणज्ञ पुरुषों की सेवा अपनी शक्ति के अनुसार करूँ तथा उससे ही मन में असीम प्रसन्नता का अनुभव करूँ।। कबहूँ मन गगना चढे, कब गिरे पाताल। कबहूँ चुपके बैठता, कबहूँ कावे चाल॥ पर मन की गति विचित्र होती है - इसलिये आशंकित होता हुआ कवि शार्थना करता है - हे प्रभु! मेरे मन को सदा दृढ बनाये रखना ताकि मैं कभी भी गुणीजनों के प्रति कृतघ्न न बन जाऊँ, मेरे मन में कभी उनके प्रति द्रोह और द्वेष की भावना न आ जाय। मेरी तुमसे यही प्रार्थना है कि मेरे हृदय में सवः गुण-ग्राहकता का भाव बनाये रखना तथा मेरी दृष्टि किस के भी दोषों की ओर मत जान देना। पश्चात्य विद्वान एमर्सन का कथन है -.
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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