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नहीं चूकते।
आनन्द प्रवचन भाग १
एक बार लुकमान हकीम से किसी व्यक्ति ने पूछा किससे सीखी ?"
लुकमान ने सहज भाव में उत्तर दिया – 'बदतमीजों से।"
"वह कैसे ?" व्यक्ति ने साश्चर्य प्रश्न किया।
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"आपने तमीज
"क्योंकि मैंने उन लोगों में जो कुछ बुरी बातें देखी उनसे परहेज किया।"
उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि जिस व्यक्ति की वास्तव में ही गुण-दृष्टि होती है वह बुराइयों में से भी अच्छाइयाँ खोज लेते हैं। पर ऐसे महापुरुष तो क्वचित् ही मिलते हैं। साधारणतया तो हम इससे उल्टा ही देखते हैं।
उल्टी जग की रीति
आपने प्रायः सुना होगा, जवासिया एक छोटा सा झाड़ होता है। वर्षा ऋतु में जबकि सारी पृथ्वी हरी-भरी हो जाती है, वह सूख जाता है। और जब ग्रीष्म ऋतु आती है तथा धरती पर के सभी लम्हाते वृक्ष सूखने लगते हैं, उनके पत्ते झड़ते हैं तब वह हरा-भरा हो जाता है, एल आ जाता है। अर्थात् पृथ्वी पर के फले फूले और हरे भरे वृक्षों को वह नहीं देख सकता तथा ईर्ष्या की आग के मारे स्वयं ही सूख जाता है। पर जब अन्य वृक्ष सूख चलते हैं तो उसे इतनी खुशी होती है कि स्वयं ही लहलहा उठता है।'
नागुणी गुणिनं वेत्ति, गुणी गुणिषु मत्सरी । गुणी च गुणारागी च दुर्लभः सस्तो जनः ॥
यही हाल इन्सान का भी है। संसार में बहुत कम ऐसे व्यक्ति मिलेंगे जो औरों की उन्नति को देखकर सच्ची खुशी का अनुभव करते होंगे। एक सुभाषित में कहा गया है :
इसका अर्थ है :- अवगुणी व्यतित गुणवानों को नहीं जान सकता। यानी जिसमें स्वयं ही गुण नहीं हैं वह गुणियों को परख कैसे कर सकता है ? गुणवानों को तो गुणवान ही पहचान सकते हैं।
किन्तु दुख की बात यह है कि गुप्वान जो होते हैं वे गुणवानों को जानकर भी उनका आदर नहीं करते। तथा उनकी सराहना करने के बदले उलटा मत्सर भाव रखते हैं। एक विद्वान दूसरे विद्वान को देखकर ईर्ष्या करता है और एक श्रीमंत दूसरे श्रीमंत की धन-वृद्धि से जलता है। तो यह उलटी रीति ही हुई न ?
अरे भाई ! जब तुम्हारे पास भी लाखों की सम्पत्ति है तो तुम्हें दूसरों की धन-वृद्धि से क्यों जलन होती है ? और जब कि तुम स्वयं भी विद्वान हो तथा औरों के द्वारा प्रशंसा प्राप्त व्यक्ति ही तो तुम्हें दूसरों की बढ़ती हुई कीर्ति