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________________ प्रार्थना के इन स्वरों में [१६] इसका कारण यही है कि हमारी आत्मा से कर्म चिपटे हुए हैं और सिध्दात्मा कर्मों से अलग है, मुक्त है। कहा भी है सिध्दां जैसी जीव है, जीव सोही सध्द होय । कर्म मेल का अन्तरा, विरला बूझे कोय ।। विरले ज्ञानी ही इस भेद को समझते हैं कि आत्मा तो सिध्दों की तथा प्राणि मात्र की एक ही सरीखी होती है जिन्तु अन्तर होता है कर्म-बन्धनों का। संसारी प्राणियों की आत्मा कर्म-बन्धनों से जकड़ी हुई और भारी होने के कारण संसार में भटकती हुई, अर्थात् जन्म-मरण करती हई नाना प्रकार की वेदनाएँ सहती हैं। और वही जब कर्मों से छूटकर मुक्त म जाती है अर्थात् कर्म-भार से रहित बनकर हलकी हो जाती है तो ऊर्ध्व-लोक में पहुँचकर सिध्दात्मा कहलाने लगती बन्धुओं! मैं जो कह रहा था, वही बात महापुरुष के पद्य में आई है। भगवान निरंजन और निराकार हैं। तथा हमारी आत्मा भी अरूपी है। चर्मचक्षुओं के द्वारा अपनी आत्मा को भी हम नहीं देख सकते। एक बात और है। जो जीव है वही सिध्द होगा। अजीव अथवा निर्जीवा सिध्द गति में नहीं जायेगा। आपके हृदय में जिज्ञासा होगी कि जब जीव सिध्द बनने वाला है और जीव का स्वरूप जब एक ही है तो हम भटकते क्यों हैं? इसी बात का उत्तर पद्य में दिया हुआ है कि "कर्म मैल का आंतरा।" सिर्फ कर्मों का मल ही हमारी आत्मा को मलिन और भारी बनाए हुए है। हम कर्मों के लेप के कारण संसार में भटक रंई हैं और सिध्दों ने कमाँ का सर्वथा नाश कर दिया है। इसीसे उन्हें भटकना ननें पड़ता। आप जानते ही हैं कि भुना हुआ बीज बोने से वह उग नहीं सकता, इसी प्रकार कर्म-रूपी बीज जब जल जाता है, तो वह उदय में नहीं आता और उसके कारण आत्मा को संसार में जन्म-मरण नहीं करना पड़ता है। हमारे कर्मों का भी जिस दिन नाश हो जायगा, आत्मा सिध्द बन जाएगी और इसे नाना यानियों में भ्रमण नहीं करना पड़ेगा। पर ऐसा होगा कैसे? सिध्द तो हम बनना चाहते हैं. जन्म-मरण के चक्र से छटना चाहते हैं, पर केवल इच्छा करने से ही क्या होगा? इसके लिए तो भारी प्रयत्न करना होगा। समस्त विषय और विकारों का त्याग करके आत्मा को विशुध्द बनाना पड़ेगा। ऐसी शक्ति हमें प्राप्त करनी है। और कवि अपनी प्रार्थना में यही बात कह रहा है काम क्रोध मोह लोभ चारों रिपु मारिये...। कहा है - हे कृपानाथ! मेरी दुर्बुद्धि को नष्ट करिये और इन चारों शत्रुओं को मार सकूँ ऐसी शक्ति प्रदान कीजिये! क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों मेरे पीछे पड़े हुए हैं। इनके कारण ही मेटा विवेक नष्ट हो गया है तथा बुद्धि
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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