________________
•[१७]
आनन्द प्रवचन : भाग १ मलिन हो रही है। मुझमें और पशु में कोई अन्तर ही नहीं रहा है। कबीर के कथनानुसार -
काम क्रोध मद लोभ की चब लग घट में खान। तब लग पंडित मूरखा, दोनों एक समार॥
आत्मा के शत्रु... वास्तव में विषय-सुख की कामनाएँ मनुष्य को अंधा बना देती हैं। काम की शान्ति कभी काम के उपभोग से न हो सकती, वह तो आग में घी डालने के समान होती है। इसके कारण ही मानद के हृदय में क्रोध, मोह और लोभ की जागृति होती है। क्रोध एक प्रकार त आँधी है जो आते ही मनुष्य के विवेक को नष्ट कर देती है। इसके आक्रमण से सद्भावनाएँ विकृत हो जाती हैं तथा ज्ञान की ज्योति बुझ जाती है। क्रोधावस्त्र में की गई क्रियाएँ कभी शुभ-फल प्रदान नहीं करती। 'वामन पुराण' में कहा भी गया है!:
यत् क्रोधनो भजति यच्च ददाति नितं, यद्वा तपस्तपति यच्च जुहोति तस्य। प्राप्नोति नैव किमपीह फलं हि लोके, मोघं फलं भवति तस्य हि कोपनस्य ।।
- क्रोधी मनुष्य जो कुछ पूजा करता है, नित्य जो दान देता है, जो तप करता है और जो होम करता है, उसका उसे इस लोक में कोई फल नहीं मिलता। क्रोधी के सभी कार्य व्यर्थ जाते हैं।
मोह भी मानव के कर्म-बन्धनों का कारण बनता है जो विचारवान व्यक्ति अपनी आत्मा का कल्याण चाहता है, स्वपने दुर्लभ मानव-जीवन को सार्थक करना चाहता है उसे सर्व प्रथम मोह-ममता का त्याग करना चाहिए। मनुष्य के सबसे निकट शरीर है, अत: उसके प्रति उसका मोह होता है। उसके बाद परिवार और परिवार के पश्चात् अपनी भौतिक सम्पत्ति के प्रति आसक्ति बनी रहती है। पर इनमें से एक भी वस्तु उसकी आत्मा के लिए हितकर नहीं होती है। इन्ही सबकी रक्षा करने में उसका जीवन समाप्त होता जाता है, धर्म-ध्यान करने का वक्त नहीं मिलता।
बुढ़ापे में देखुंगा एक युवक ने बी.ए.पास किया और फिर नौकरी करने लगा। कुछ दिन नौकरी करने पर शादी भी हो गई। शादी हुई उसके बाद युवक ने बीमा करवाया।
एक संत से जब उसने यह सब बताया तो उन्होंने पूछ लिया - "अभी तो तुम्हारी उम्र बहुत कम है, इतनी जल्दी बगना क्यों कराया?"
युवक बोला - "भगवन! जिनगी का क्या ठिकाना, अगर मुझे कुछ हो गया तो मेरी पत्नी को कष्ट न हो इसलिए बीस करवा लिया है।"
साधु ने कहा - "अगर जीवन की नश्वरता को तुमने समझ लिया है,