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________________ • [२६९] आनन्द प्रवचन : भाग १ [२३] ATHIRAIMEROIN ((गुणानुराग ही मुक्ति-मार्ग है। धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो! मनुष्य-जन्म रूपी वृक्ष के छ: फल बताए गए हैं। जिनमें से पहला जिनेन्द्र पूजा, दूसरा गुरु की सेवा, तीसरा प्राणी मात्र गर दया करना और चौथा है सत्-पात्र को दान देना। इन चारों का वर्णन पिछले चार दिनों में किया गया है। आज पाँचवाँ फल जो कि गुणानुराग है, उस पर विचार करना है। गुणानुराग का अर्थ है -- गुणों को देखकर प्रेम भाव उत्पन्न चिना तथा हृदय में प्रसन्नता का भाव आना। गुण भी और अवगुण भी प्राय: देखा जाता है कि संसार में जितने भी प्राणी या पदार्थ हैं सभी में गुण तथा अवगुण दोनों ही होते हैं। सभी गुणवान हों, ऐसा नहीं होता तथा सभी निर्गुणी हों यह भी नहीं होता। प्रत्येक प्राणी और प्रत्येक पदार्थ में जहाँ कुछ गुण मिलते हैं, वहां कुछ न कुछ अवगुण भी पाए जाते हैं। संक्षेप में न एक ही स्थान पर केवल गुणों का ही मंडार होता है, और न एक ही स्थान पर अवगुणों का समूह। एक श्लोक में इसी बात की पुष्टि सुन्दर उदाहरणों के साथ की गई हैं। कहा है :-- यत्रास्ति लक्ष्मीविनयो न तत्र, ह्याभ्यागतो यत्र न तत्र नक्ष्मीः। उभौ च तो यत्र न तत्र विद्या, नैकत्र सर्वो गुणसंनिपातः ।। जहाँ लक्ष्मी रहती है वहां नम्रता नहीं है, और जहां अतिथि सत्कार की भावना होती है लक्ष्मी नहीं रहती। और जहां दोनों हैं वहाँ विद्या का ही अभाव रहता है, अत: यह निश्चित है कि एक स्थान प सब गुण समूह नहीं रहते। पदार्थों की दृष्टि से देखा जाय तब भी यही बात है। गुलाब के फूल के साथ कांटे होते हैं और कमल कीचड़ में रहता है। कस्तूरी जीवन-दायिनी होते हुए भी काले रंग की होती है तथा किमक-फल सुन्दर होते हुए भी प्राण-नाश का कारण बनता है।
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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