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• दुर्गति-नाशक दान
[२६८] रूप में समझ लेते हैं, उनके हृदय स्वत: ही भोग-विलास तथा लोम-लालच से दूर भागते हैं। वे भली-भाँति समझ लेते हैं के आत्मा का वास्तविक धन तो चैतन्य है, और उसी के विकास तथा संचय में आत्मा क कल्याण है।
आत्म-कल्याण के इच्छुक प्राणी सपने मन और इन्द्रियों पर भी पूर्णतया काबू रखते हैं। वे जानते हैं कि कोई भी । पाप इन सबकी सहायता के बिना नहीं होता। इस विषय में सुप्रसिद्ध पाश्चात्य लेखक टॉलस्टॉय ने एक बड़ा सुन्दर रूपक लिखा है। वह इस प्रकार है :पापी कौन है।
एक बार मनुष्य के शरीर और आमा में बहस छिड़ गई। दोनों एक दूसरे को बुरा भला कहने लगे। शरीर मारे क्रोध के तमझ कर बोला --
"मैं तो जड़ हूँ मिट्टी का पिण्टु! मोह और आसक्ति पैदा करने वाली वस्तुओं को देख भी नहीं सकता। फिर भला मैं पप कैसे कर सकता हूँ? शरीर की इस बात पर आत्मा का भी क्रोध आ गया। आग-बबूला होकर
आग-बबूला होकर बोली -- मेरे पास तो पाप करने के साधन नहीं हैं, मैं पाप कैसे कर सकती हैं? इन्द्रियों के बिना भी कोई कार्य हो सकता है क्या? जब भगवान ने शरीर
और आत्मा की ये बातें सुनी तो वे मुसकरा दिये और बोले - "लड़ना बेकार है। क्योंकि तुम दोनों ही बराबर के जिम्मेकर हो! शरीर के कन्धों पर जब आत्मा आ बैठती है, तब दोनों के सहकार से ही पाप व जन्म होता है।"
भगवान की इस बात को सुनकर दोनों ही खामोश हो गये?
बन्धुओ, इस उदाहरण के रहस्य नजे आप समझ गए होंगे कि अगर मानव पापों का जन्म नहीं होने देना चाहता है। अर्थात पाप-कर्मों के बन्ध से बचना चाहता है तो उसे अपने मन, वचन तथा शरीर, इन तीनों ही योगों को पूर्णतया विशुद्ध रखना होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि मुँह से तो वह भजन-कीर्तन करे और मन से अपने वैरी का अनिष्ट चाहता रहे। या कि हाथों से दान देता रहे और काल्पनिक आँखों से दाताओं की लिस्ट में अपना नाम पढ़ता रहे अथवा वाह-वाह! या प्रशंसा के स्वरों को सुनता रहे।
इन सब स्वार्थमय भावनाओं को छोड़कर ही जब वह दान-धर्म की आराधना करेगा तो इस लोक में यश और परलोक में अक्षा सुख की प्राप्ति कर सकेगा।