SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [२६६] • दुर्गति-नाशक दान अगर तुम दीन-दुःखियों की सहायता कर रहे हो या अपना पैसा स्कूल, कॉलेज या विद्यालय में लगा रहे हो तो औरों पर : उपकार कर रहे हो। नहीं, समाज के प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि वह तन, मन और धन जैसे भी सक्षम हो, औरों की सहायता करें। क्योंकि धन केवल उसी का नहीं होता जो उसे इकठ्ठा कर लेता है, बल्कि उस प्रत्येक व्यक्ति का होता है जिसको धन की जरूरत है। एक पाश्चात्य विद्वान फ्रेंकलिन ने भी कहा है - "Wealth is not his that has it, but his that enjoys it." धन उसका नहीं है, जिसके पाप्त है, बल्कि उसका है जो उसका उपयोग करता है। एक दाना भी मेरा नहीं है बहुत समय पहले गुजरात में एक बार भयंकर अकाल पड़ा। अनावृष्टि के कारण खेतों में एक दाना भी पैदा न हुआ। लोग भूख से तड़प-तड़प कर मरने लगे। देश की यह विषम स्थिति देखकर एक जैन श्रावक जगशाह ने गाँव-गाँव में सदाव्रत खोल दिये और भूखों को अन्न बाँटा जाने लगा। गुजरात के महाराज ने जगडूशाह के विषय में यह सब सुना और एक दिन उन्हें सम्मान से अपने राजमहल में बुम्नवाया। स्वागत सत्कार के बाद महाराज ने उनसे कहा - "सेठजी! आपकी दानवीरता की मैंन बड़ी भारी प्रशंसा सुनी है। साथ ही यह भी सुना है कि आपके यहाँ सैकड़ों कोठार धान्य से भरे हुए हैं। मैं अपनी प्रजा को जीवित रखने के लिये उस अनाजा को खरीदना चाहता हूँ। क्योंकि राज्य का अन्न-भंडार समाप्त हो गया है। क्या आप उस अनाज को मुझे बेचेंगे? मैं आपसे वह जबर्दस्ती लेना नहीं चाहता, देवल प्रजा की रक्षा के लिए खरीदना चाहता हूँ? जगडूशाह ने राजा की बात बड़े ध्यान से सुनी और फिर उत्तर दिया .-- "महाराज! आपका प्रजा-प्रेम सराहनीय है। पर मेरे पास जो धान्य के कोठार हैं, उनमें से तो एक दाना भी मेरा नहीं है, फिर मै iआपको क्या बेचूँ? "तब फिर वह सब किसका है मठजी?" राजा ने बहुत चकित होकर पूछा। "आप स्वयं ही देख लीजिये।" जगडूशाह ने बड़ी नम्रता से उत्तर दिया। यह सुनकर राजा ने सेठजी के धाग्य-कोठारों में से एक खुलवाकर देखा तो मालूम हुआ कि उसमें एक ताम्रपत्र रखा है और उस पर खुदा हुआ है -
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy