________________
• दुर्गति-नाशक दान
[२५८] होनी चाहिये।
दानदाताओं की सूची में अपना नगा सबसे ऊपर लिखवाने की इच्छा से कि लोग उन्हें दानी मानें, दान देने से यावृद्धि हो, याकि सब प्रशंसा करें, इन भावनाओं को लेकर दान देने से उसका कोई महत्व नहीं होता।
ईसाईयों के धर्मग्रन्थ बाइबिल में ान की सची परिभाषा बताई है। कहा
"तुम्हारा दायाँ हाथ जो देता हो उसे बायाँ हाथ न जानने पाए।"
कितनी सुन्दर और सची परिभाषा है? वास्तव में दान वही कहलाता है जो किसी को दिखाने के लिए न दिया जाय। अपितु किसी अभावग्रस्त या दुःखी प्राणी को देखकर उसका हित करने और उसे सुखी बनाने की इच्छा से दिया जाय। दाता के हृदय में स्नेह, करुणा, अनुकम्पा और असमर्थ व्यक्ति का दुख दूर करने की भावना होनी चाहिये।
दान की श्रेष्ठता अथवा निकृष्टता देने वाले की भावनाओं पर अवलम्बित होती है। प्रेम तथा भक्तिपूर्वक दी गई वस्तु चाहे वह मूल्यवान हो या सामान्य श्रेष्ठ दान कहलाएगी। कहा भी है:
"दुल्लहाओ मुहादाई, मुहाजीवीवि दुल्लहा।
मुहादाई मुहाजीबी, दो वि गच्छलि सुग्गई।"
इस संसार में निःस्वार्थ भाव से देने वाले और नि:स्वार्थ भाव से ही लेने वाले दुर्लभ हैं। किन्तु अगर देने वाना वास्तव में ही किसी भी प्रकार के बदले की आशा रखे बिना देता है। और लेने वाला भी केवल संयम निर्वाह के लिए ही निस्वार्थ भाव से लेता है, तो दोनों ही उत्तम गति को प्राप्त होते हैं।
दान का कितना सुन्दर माहात्म्य है? तथा कितना प्रभाव है? जो कि देने वाले और लेने वाले, दोनों पर ही समान रूप से पड़ता है। बशर्ते कि देने वाले का हृदय निस्वार्थी और निष्कपट हो तथा लेने वाला भी ऐसी ही भावनाओं का अधिकारी और सुपात्र हो।
कहने का अभिप्राय यही है कि दान जीवन को अलंकृत करने वाला सबसे बड़ा आभूषण है जिसके अभाव में मानव-कोवन असुन्दर और निरर्थक जान पड़ता है। पर राजा हरिश्चन्द्र और कर्ण जैसे म्हादानी इस संसार में बिरले ही होते हैं। एक अनुभवी विद्वान का कथन हैं :
"शतेषु जायते शूरः, सहस्त्रेषु च गडितः।
वक्ता दश सहस्त्रेषु, दाता भवति Bा न वा।" अर्थात् - सैकड़ों पुरुषों में से लोई एक व्यक्ति ही शूरवीर निकलता है