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आनन्द प्रवचन : भाग १ है। दान-क्रिया का प्रारम्भ भगवान ऋषभदेव से प्रारम्भ हुआ है। दान की महिमा अपरम्पार है जिसका शब्दों में वर्णन नहीं लिया जा सकता। संसार के सभी धर्मों ने दान की महिमा को एक स्वर में स्वीकार किंया है। क्योंकि इसके द्वारा आत्मिकगुणों का पूर्ण विकास होता है।
मानव-जीवन की श्रेष्ठता दान-रूप धर्म का आचरण करने में ही हैं। ऐसा न होने पर उसमें तथा एक पशु में कोई धन्तर दिखाई नहीं देगा। उदर-पूर्ति तो पशु भी कर लेते हैं और मानव भी करे तो उसमें उसकी क्या महत्ता है? इसलिये प्रत्येक ज्ञानवान और विवेकी मानव को इस पशु-वृत्ति से अपने आपको ऊँचा उठाकर दान-धर्म को अंगीकार करना चाहिए तथा अपने यौवन को सार्थक करना चाहिये।
सदगृहस्थ का सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य दान देना ही है। जिस मानव के हृदय में दान देने की भावना नहीं होती उसका हध्य बंजर भूमि के समान गुणहीन होता है। दान के गुण कहाँ तक गिनाएँ जायें, एक श्लोक में कहा गया है:
दानेन भूतानि वशीभवन्ति,
दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम्। परोपि बन्धुत्वमुपैति दान -
दीनं हि सर्व व्यसनानि हंति॥ दान से समस्त प्राणी वश में हो जाते हैं, दान से चिर शत्रुता का नाश हो जाता है। दान से पराया व्यक्ति भी अपना हो जाता है तथा अधिक क्या कहा जाय ? दान से समस्त विपत्तियों का नाश होता है।
दिया हुआ दान कभी निष्फल नहीं जाता, वह शुभ कर्मों के रूप में ब्याज सहित पुन: मिल जाता है। ज्ञानियों का कथन है:
"ब्याजे स्यात् द्विगुणं वित्तं, व्यगारे च चतुर्गुणम्।
क्षेत्रे शतगुणं प्रोक्तं, दानेऽनन्तगुणं भवेत् ॥” ब्याज से दुगुना, व्यापार से चौगुगा, खेत से शतगुना, किन्तु दान देने से अनन्त मुना लाभ होता है। अन्य व्यवसायों में तो फिर भी हानि की संभावना रहती है किन्तु दान देने से जो पुण्योपार्जन किया जाता है उसमें कभी टोटा आने की सम्भावना नहीं होती। इससे साबित होता है कि दान का महत्त्व कितना अधिक
दाता की भावना कैसी हो? अभी हमने दान के महत्त्व को समझा कि दान से अनन्तगुना लाभ होता है। तथा उसमें घाटे की आशंका नहीं रान्ती। किन्तु एक शर्त उसके साथ अवश्य है कि दान देते समय देने वाले की भावना पूर्ण रूप से विशुध्द हो। दान-दाता के हृदय में दान देते समय किसी भी प्रकार के स्वार्थ-साधन की भावना नहीं