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________________ दुर्गति-नाशक दान बन्धुओ, यह पद्य मनुस्मृति के ने लिखा है। अर्थात् मनुस्मृति में आठ प्रकार • [२५६] आधार पर पं. श्री अमीऋषि जी महाराज कसाई या हत्यारे माने गये हैं। इसमें पशुओं को मारने की सलाह देने वाले, पशु को मारने वाले, अंग-भंग करने वाले, खरीदनेवाले, तथा माँस बेचने वाले तो कसाई हैं ही अपितु बड़-बड़े राजपूत राजा-महाराजा तथा अन्य बड़े कड़े घराने और उँची जाति के व्यक्ति भी कसाईयों की श्रेणी में आते हैं जिनके घर मांस पकता है और खाया जाता है। अब बताइये कितने व्यक्ति आग, इनमें ? एक टुकडी नहीं हुई क्या ? अरे एक टुकड़ी तो क्या, पूरी एक सेना भी कसाईयों की कही जाय तो अतिशयोक्ति नहीं है। आज के युग में माँस और मदिरा से गरहेज रखने वाले ही कितने ? तो मैं कह यह रहा था कि आपका दिया हुआ दान अगर धोखे से किसी कसाई के पास पहुँच जाय तो ये आों प्रकार के कसाई तो महापाप के भोगी बनेंगे ही, साथ ही आप भी इनके पाण कार्य में मूल कारण बनकर अछूते नहीं रहेंगे। नौंवे कसाई की श्रेणी में आ जाएँगे। यही हाल शराबी, जुआरी, दुसवारी अथवा किसी भी अन्य दुर्जन व्यक्ति को दान देने से होता है। ऐसे व्यक्तिगं को दान देने से धन का अपव्यय तो होता ही है साथ ही किसी न किसी प्रकार से उलटे कर्म-बन्धन की संभावना बनी रहती है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी दान के फोन रूप बताए हैं - सात्विकदान, राजसदान तथा तामसिक दान इनमें से प्रथम कटि का यानी सात्विक दान ही उत्तम है। शेष दोनों ही प्रकार के दान हीन कोटे के माने जाते हैं। और जैसा कि मैंने अभी बताया है उनसे लाभ के बजाय हानि को आशंका ही बनी रहती है। आशा है आप लोग अब शुभ पात्र शब्दों का रहस्य समझ गए होंगे तथा अनुभव कर रहे होंगे कि सुपात्र को देना, अथवा सत्कार्य में लगाना ही अपने धन का सदुपयोग करना है। तथा सालिक दान ही वास्ततव में सच्चा दान कहलाता है। दान का महत्त्व दान का सीधा और सहज अर्थ लिया जाय तो यही होता है कि किसी को कुछ देना । किन्तु हमारे धर्मशास्त्रों में इसका कुछ विशेष धर्म-ग्रन्थों के अनुसार धर्म के चार अंग माने गए हैं भावना। इन चारों में दान को सर्वश्रेष्ठ तथा प्रथम माना गया है अर्थ लिया जाता है। दान, शील, तप और धर्ममय जीवन का प्रारम्भ दाना से ही माना जाता है। तीर्थंकर भी संयम ग्रहण करने से पूर्व एक वर्ष तक निस्तर दान देते हैं, जिसे वर्षीदान कहा जाता
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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