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________________ अमरत्वदायिनी अनुकम्पा [२५४] ऐसी दया को जब व्यक्ति अपने जदय में प्रतिष्ठित कर लेता है, तभी वह जगत के समस्त प्राणियों में मैत्री तथा बधुभाव को देखता है। उसके अन्तस्तल में 'बसुधैव-कुटुम्बकम्' का उदार स्वर सम्व ध्वनित होता है। परिणामस्वरूप वह कभी भी, किसी भी प्राणी को कष्ट-मय अवस्था में नहीं देख सकता। अपने तन, मन, और धन की सम्पूर्ण शक्ति से उसके दुःख व संकट को दूर करने के लिये दौड़ पड़ता है। राजा मेघरथ का कबूतर के साथ कौनसा रिश्ता था? कोई नहीं। फिर भी उन्होंने उस कपोत की प्राण-रक्षा के लिये एक-एक करके अपने अंगों को काट डाला और तब भी वजन कम होने कर स्वयं ही तराजू के पलड़े पर बैठ गए। अनुकम्पा की पवित्र भावना को लेकर आग्ने प्राणों का भी बलिदान दे देने वाले महापुरुषों को कोटिशः प्रणाम है। पर-दुख कातर ऐसे महापुरुष ही प्रस्तव में मनुष्य-जन्म रूपी वृक्ष के फलों को सच्चे रूप में प्राप्त करते हैं। तथा "उमत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना को सार्थक करने में सफलता हासिल करते हैं। बन्धुओ, आज सत्वानुकम्पा को आपने समझा है। हमारा अगला विषय होगा 'शुभ पात्र दानम्।'
SR No.091002
Book TitleAnand Pravachana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnandrushi
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1994
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size7 MB
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